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चर
पूजन करे । फिर अस्त्र-मन्त्रद्वार पूजित घण्टा बजाते एक सौ आठ बार जप
हुए गुग्गुलका धूप जलावे। फिर "शिवाय नपः।'
बोलकर अमृतके समान सुस्वादु जलसे भगवानृको
आचमन करावे । इसके बाद आरती उतारकर पुनः
पूर्ववत् आचमन करावे । फिर प्रणाम करके देवताकी
आज्ञा ले भोगाङ्गोंकी पूजा करे ॥ ६७ --७१॥
अग्निकोणमें चन्द्रमाके समान उज्ज्वल हृदयका,
ईशानकोणमें सुवर्णके समान कान्तिवाले सिरका,
नैऋत्यकोणमें लाल रंगकी शिखाका तथा
वायव्यकोणमें काले रंगके कबचका पूजन करे।
फिर अग्निवर्णं नेत्र और कृष्ण-पिड्जल अस्त्रका
पूजन करके चतुर्मुख ब्रह्मा और चतुर्भुज विष्णु
आदि देवताओंको कमलके दलोंमें स्थित मानकर
इन सबकी पूजा करे। पूर्व आदि दिशाओंमें
दाढ़ोंके समान विकराल, बज़तुल्य अस्त्रका भी
पूजन करे ॥ ७२-७३ ॥
मूल स्थानम ॐ हां हूं शिवाय नमः।'
बोलकर पूजन करे । ' ॐ हां हृदयाय नमः, हीं
करे । तत्पश्चात् कवचसे
आवेष्टित एवं अस्त्रके द्वारा सुरक्षित अक्षत-कुश,
पुष्प तथा उद्धव नामक मुद्रासे भगवान् शिवसे इस
प्रकार प्रार्थना करे -- ॥ ७४--७७ ‡ ॥
“प्रभो! गृह्यसे भी अति गुह्य वस्तुक आप
रक्षा करनेवाले है । आप मेरे किये हुए इस जपको
ग्रहण करें, जिससे आपके रहते हुए आपकी
कृपासे मुझे सिद्धि प्राप्त हो "॥७८ ६॥
भोगकी इच्छा रखनेवाला उपासक उपर्युक्त
श्लोक पढ़कर, मूल मन्त्रके उच्चारणपूर्वक दाहिने
हाथसे अर्ष्य-जल ले भगवानूके वरकी मुद्रासे
युक्त हाथमे अर्घ्यं निवेदन करे। फिर इस प्रकार
प्रार्थना करे -' देव ! शंकर! हम कल्याणस्वरूप
आपके चरणोँकी शरणमे आये है । अतः सदा हम
जो कुछ भी शुभाशुभ कर्म करते आ रहे हैं, उन
सबको आप नष्ट कर दीजिये - निकाल फेंकिये।
हूँ क्ष:। शिव ही दाता हैं, शिव ही भोक्ता हैं, शिव
ही यह सम्पूर्ण जगत् हैं, शिवकी सर्वत्र जय हो।
शिरसे स्वाहा।' बोलकर हृदय और सिरकी पूजा | जो शिव हैं, वही मैं हूँ*॥७९--८१ ६ ॥
करे। “हं शिखायै वषट्” बोलकर शिखाकी, 'हैं
कवचाय हुम्।! कहकर कवचकी तथा “हः
अस्त्राय फट्।' बोलकर अस्त्रकी पूजा करे।
इसके बाद परिवारसहित भगवान् शिवको क्रमश:
पाद्य, आचमन, अर्ध्य, गन्ध, पुष्प, धूप, दीप,
नैवेद्य, आचमनीय, करोदर्तन, ताम्बूल, मुखवास
(इलायची आदि) तथा दर्पण अर्पण करे । तदनन्तर
इन दो श्लोकोंकों पढ़कर अपना किया हुआ
जप आराध्यदेवको समर्पित कर दे । तत्पश्चात् जपे
हुए शिव-मन्त्रका दशांश भी जपे (यह हवनकी
पूर्तिक लिये आवश्यक है ।) फिर अर्ध्य देकर
भगवानूकी स्तुति करे। अन्ते अष्टमूर्तिधारी आराध्यदेव
शिवको परिक्रमा करके उन्हें साष्टाङ्ग प्रणाम करे ।
नमस्कार और शिव-ध्यान करके चित्रे अथवा
देवाधिदेवके मस्तकपर दूर्वा, अक्षत और पवित्रक | अग्नि आदिमें भगवान् शिवके उद्देश्यसे यजन-
चढ़ाकर हृदय (नमः) -से अभिमन्तित मूलमन््रका
पूजन करना चाहिये ॥ ८२-८४॥
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराणे 'शिव-पृजाकी विधिका वर्णत” नामक
चौहत्तरवां अध्याय परा हओ ॥ ७४॥
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की कल ज अउसफनफफफउससइक्इ-क्ज- ब~]
१. गुछातिगुछाणोप्ता त्व॑ गृहाणास्मत्कृतं जपम्। सिद्धिर्भवतु मे येन त्वत्प्रसादात् त्वयि स्थिते ॥ (अग्नि० चु० ७४--७८ ३ ४)
२. यत्किंचित्कुमहे देव सदा सुकृतदुष्कृतम्॥
तन्मे शिवपदस्थस्य हूं क्षः शेपय शंकर। शिवो दाला सिवो भोक्ता शिव: सर्वीमिदं जगत् ॥
शिषो जयति सर्वत्र यः शिवः सोऽहमेव च।
(अग्नि० ७४।८०--८२)