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१५८ | [ ब्रह्माण्ड पुराण

तं चौरं वच्रनामानमजातोऽनुचराम्यहम्‌ ।

तेनेव वहुधा क्षिप्तं धनं भूरि महीतले ॥२६

स्तोकं स्तोकं हरिष्यामि तत्र तत्र घनं बहू ।

इति निश्चित्य मनसा तेनाजातस्तमन्वगात्‌ ॥ २७

तथेवाहूत्य तद्द्रव्यं तेन सेतुमप्‌रयत्‌ ।

मध्ये जलावृत्तस्तेन प्रसादण्चापि शाड्धिण: ॥२८

यह धन तो बिता ही श्रम के आपके पास आगया है । इसका तो

धर्मार्थ आपको विनियोग करना चाहिए। अतः आप इस धन से शुभ कमं

वावड़ी--कूप और तालाब आदि के निर्माण करने में ब्यय कर दीजिए ।२२।

अपनी पत्नी के इस वचन का श्रवण करके जो कि आगे होने वाले भाग्य

को सुबोधित करने वाला था उस किरात ने जहाँ-तहाँ पर देखा था कि सभी

स्थल अधिक जल वाले थे ।२३। फिर न्द्री दिशा में उसने एक विमल उदक

बाला तलाब जो बहुत अधिकं घन से बनाये जाने वाला था बनवाया था

जिसमें जल कभो भो क्षोण नहीं होता धा।२४ सम्पूर्ण धन काम करने

बालों को दे देने पर भी वह काम अपूर्णं देखकर वह्‌ चिन्ता से बेचैन हो

गया था ।२५। उसने सोचा कि उस वच नामक चोर के पीछे उसके बिना

जाने हुए मैं गमन करू । उसने ही प्रायः भूमि में अधिक धन डाला ही

होगा ।२६। वहाँ-वहाँ से ही थोड़ा-थोड़ा करके बहुत-सा घन हरण करूगा ।

ऐसा ही मन में निश्चय करके वह उसके बिना जाने हुए उसी के पीछे गया

था ।२७। उसी भाँति से उसने उस धन का आहरण किया था और उस

सेतु को पूर्ण कर दिया था । उस तालाब के मध्य में जिसके चारों ओर जल

था, एक भगवान्‌ विष्णु का प्रासाद भी बनवाया था ।२८।

अमृत मन्थन वर्णन

इन्द्र उवाच-

भगवन्सवेधर्मज्ञ त्रिकालज्ञानवित्तम ।

दुष्कृतं तत्प्रतीकारो भवता सम्यगीरितः ॥ १

केन कर्मविपाकेन ममापदियमागता ।

प्रायश्चित्तं च च कि तस्य गदस्वे वदतां वर ॥ २

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