स्तेयपान वर्णन | | १५७
तथापि बहुभाग्यानां पृण्यानामपि पात्रिणे ।
दृष्टपूर्व तु तद्वाक्यं न त कदाचिद्वृथा भवेत ॥२०
अथ वात्मप्रयासेन कृच्छाद्ल्लभ्यते धनम् ।
तदेव तिष्ठति चिरादन्यद् गच्छति कालतः ॥२१
इस रीति से बहुत सा धन चोर कर वच्नने भूमिमें रक्घदिया उस
किरात ने भो घर में आकर प्रसन्न होते हुए अपनो पत्नौ से कहा था ।१५।
मैंने काष्ठ का समाहरण करने के लिए वन में गमन करते हुए मार्ग में यह
घन प्राप्त किया है । है भीर ! आपको तो धन की इच्छा है इसे अब अपने
पास रक्खो ।१६। यह श्रवण करके उसने उस धन को ले लिया था और घर
में अन्दर रख दिया था। फिर मन में कुछ गिन्तन करती हुईं उसने अपने
पति से यह वाक्य कहा था ।१७। जो यह विप्र हमारे घरों में नित्य ही
सेञ्चरण किया करता है । वह मुझ को देखकर कि यह थोड़े ही समय में
बहुत भाग्य वाली हो गई है । चारों वर्णों की नारियों में यह यदि राज
वल्लभा हौ-ऐसा ही कहेंगे । किन्तु भील-किरात-शलूष और अन्त्य जातीय
पुरुष में वाल्मीकि के शापसे यह लक्ष्मी अधिक समय तक नहीं स्थित रहा
करती है ।१८-१६। तो भी बहुत भाग्य वाले पुण्यों के पात्र के लिए यह
वाक्य पूवं में देखा गया है और यह कभी भी वृथा नहीं होता ।२०। अथवा
जो घन अपने प्रयास से कष्ट के साय प्राप्त किया जाता है वह ही धन
स्थिर होता है और अधिक समय पर्यन्त ठहरता है । इसके अतिरिक्त जो
अनायास मिल जाता है वह कुछ ही समय में चला जाया करता है ।२१।
स्वयमागतवित्तं तु धर्मार्थ विनियोजयेत् ।
कुरुष्वेतेन तस्मात्वं वापीकूपादिकाज्छ्.भाच् ॥२२
इति तद्रचनं श्रत्वा भाविभाग्यप्र बोधितम् ।
बहुदकसमं देशं तत्रकव्यलोथयत् ॥२३
निरममेऽथ महेद्रस्य दिग्भागे विमलोदकम् ।
सुबहुद्रव्यसंसाध्यं तटाक चाक्षयोदकम् ॥ २४
दत्तेषु कमेंकारिभ्यो निखिलेषु धनेषु च ।
असंपूर्ण तु तत्कमं हश वा चिताकृनोऽभवत् ॥२५