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+ तुृत्तीथः स्कन्धः, «

१५१

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हुआ है॥ १६॥

जब ब्रह्माण्डके गर्भरूप जलमें शयन करनेवाले

श्रीनारायणदेवने ब्रह्माजीके अन्तःकरणमे प्रवेश किया, तब

वे पूर्वकल्पोंमें अपने ही द्वारा निश्चित की हुई नाम-रूपमयी

व्यवस्थाके अनुसार लोकॉंकी रचना करने लगे॥ १७॥

सबसे पहले उन्होंने अपनी छायासे तामिस्र, अन्धतामिस्र,

तम, मोह और महामोह--यों पाँच प्रकारकी अविद्या

उत्पन्न की ॥ १८ ॥ ब्रह्मजोको अपना वह तमोमय शरीर

अच्छा नहीं लगा, अतः उन्होंने उसे त्याग दिया । तब,

जिससे भूख-प्यासकी उत्पत्ति होती है--ऐसे रात्रिरूप उस

शरीरको उसीसे उत्पन्न हुए यक्ष और राक्षसोने ग्रहण कर

लिया ॥ १९॥ उस समय भूख-प्याससे अभिभूत होकर

वे ब्रह्माजीको खानेको दौड़ पड़े और कहने लगे--'इसे

खा जाओ, इसकी रक्षा मत करो',क्योंकि वे भूख-प्याससे दृष्टिसे

व्याकुल हो रहे थे॥२०॥ ब्रह्माजीनी घबराकर उनसे

कहा-- ओरे यक्ष-राक्षसो ! तुम मेरी सन्तान हो; इसलिये

मुझे भक्षण मत करो, मेरी रक्षा करो !' (उनमेंसे जिन्होंने

कहा 'खा जाओ, वे यक्ष हुए और जिन्होंने कहा "रक्षा

मत करो', वे राक्षस कहलाये) ॥ २१ ॥

फिर ब्रह्माजीने सात्तिकी प्रभासे देदीप्यमान होकर

मुख्य-मुख्य देवताओंकी रचना की। उन्होंने क्रीडा करते

हुए, ब्रह्माजीके त्यागनेपर, उनका वह दिनरूप प्रकाशमय

शरीर ग्रहण कर लिया ॥ २२॥ इसके पश्चात्‌ ब्रह्माजीने

अपने जघनदेशसे कामासक्त असुरोंको उत्पन्न किया। वे

अत्यन्त कामलोलुप होनेके कारण उत्पन्न होते हो मैथुनके

लिये ब्रह्माजीकी ओर चले ॥ २३ ॥ यह देखकर पहले तो

वे हंसे; किन्तु फिर उन निर्लज असुरोको अपने पीछे लगा

देख भयभीत और क्रोधित होकर बड़े जोरसे

भागे॥ २४ ॥ तब उन्होंने भक्तोंपर कृपा करनेके लिये

उनकी भावनाके अनुसार दर्शन देनेवाले, शरणागतवत्सल

वरदायक श्रीहरिक पास जाकर कहा--॥ २५॥

"परमात्मन्‌ ! मेरी रक्षा कौजिये; मैंने तो आपकी हो

आज्ञासे प्रजा उत्पन्न की थी, किन्तु यह तो पाप्म प्रवृत्त

होकर मुझकों ही तंग करने चली है॥२६॥ नाथ !

एकमात्र आप ही दुखी जीवोका दुःख दूर करनेवाले हैं

और जो आपकी चरण-शरणमें नहीं आते, उन्हें दुःख

देनेवाले भी एकमात्र आप ही है' ॥ २७॥

श्रीमद्धा०-सु०-सा०-- ६

प्रभु तो प्त्यक्षवत्‌ सबके हदयकी जाननेवाले हैं।

उन्होंने ब्रह्माजीकी आतुरता देखकर कहा--'तुम अपने

इस कामकलुषित शरीरको त्याग दो।' भगवानके यो

कहते ही उन्होंने वह शरीर भी छोड़ दिया ॥ २८ ॥

(ब्रह्मजीका छोड़ा हुआ वह शरीर एक सुन्दरौ

स्त्री--संध्यादेवीके रूपमें परिणत हो गया।) उसके

चरणकमलोकि पायजेब इङकृत हो रहे थे। उसकी आँखें

मतवाली हो रही थी और कमर करधनीकी लड़ोंसे

सुशोभित सजीलों साड़ीसे की हुई थी ॥ २९॥ उसके

उभरे हुए स्तन इस प्रकार एक-दूसरेसे सटे हुए थे कि

उनके बीचमें कोई अन्तर ही नहीं रह गया था। उसकी

नासिका ओर दन्तावली बड़ी ही सुघड़ थी तथा वह

मधुर-मधुर मुसकराती हुई असुरोकी ओर हाव-भावपूर्ण

देख रही थी॥३०॥ बह नीली-नोली

अलकावलोसे सुशोभित सुकुमारी मानो लज्जाके मारे

अपने अझलमें ही सिमिटी जाती थी। विदुरजी ! उस

सुन्दरीको देखकर सब-के-सब असुर मोहित हो

गये॥ ३१॥ "अहो ! इसका कैसा विचित्र रूप, कैसा

अलौकिक धैर्य और कैसी नयी अवस्था है। देखो, हम

कनो बीचमे यह कैसी वेपरवाह-सी विचर रही

॥ ३२॥

इस प्रकार उन कुबुद्धि दैत्योनि स्नीरूपिणी संध्याके

विषयमे तरह-तरहके तर्क-वितर्क करके फिर उसका बहुत

आदर करते हुए प्रेमपूर्वक पूछा-- ॥ ३३ ॥ 'सुन्दरि !

तुम कौन हो और किसकी पुत्री हो ? भामिनि ! यहाँ

तुम्हारे आनेका कया प्रयोजन है ? तुम अपने अनूप रूपका

यह बेमोल सौदा दिखाकर हम अभागोको क्यों तरसा रही

हो ॥ ३४ ॥ अवले ! तुम कोई भी क्यो न हो, हमें तुम्हारा

दर्शन हुआ--यह बड़े सौभाग्यकी बात है। तुम अपनी

गेंद उझाल-उछालकर तो हम दर्शकोकि मनको मथे

डालती हो ॥ ३५ ॥ सुन्दरि ! जब तुम उछलती हुई गेंदपर

अपनी हथेलीकी थपक्ती मारती हो, तब तुम्हारा

चरण-कमल एक जगह नहीं ठहरता; तुम्हारा कटिप्रदेश

स्थूल स्तनोंके भारसे थक-सा जाता है और तुम्हारी निर्मल

दृष्टिसे भी थकावट झलकने लगती है। अहो ! तुम्हारा

केशपाश कैसा सुन्दर है' ॥ ३६॥ इस प्रकार स््रीरूपसे

प्रकट हुई उस सायड्डालीन सख्याने उन्हें अत्यन्त

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