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हुआ है॥ १६॥
जब ब्रह्माण्डके गर्भरूप जलमें शयन करनेवाले
श्रीनारायणदेवने ब्रह्माजीके अन्तःकरणमे प्रवेश किया, तब
वे पूर्वकल्पोंमें अपने ही द्वारा निश्चित की हुई नाम-रूपमयी
व्यवस्थाके अनुसार लोकॉंकी रचना करने लगे॥ १७॥
सबसे पहले उन्होंने अपनी छायासे तामिस्र, अन्धतामिस्र,
तम, मोह और महामोह--यों पाँच प्रकारकी अविद्या
उत्पन्न की ॥ १८ ॥ ब्रह्मजोको अपना वह तमोमय शरीर
अच्छा नहीं लगा, अतः उन्होंने उसे त्याग दिया । तब,
जिससे भूख-प्यासकी उत्पत्ति होती है--ऐसे रात्रिरूप उस
शरीरको उसीसे उत्पन्न हुए यक्ष और राक्षसोने ग्रहण कर
लिया ॥ १९॥ उस समय भूख-प्याससे अभिभूत होकर
वे ब्रह्माजीको खानेको दौड़ पड़े और कहने लगे--'इसे
खा जाओ, इसकी रक्षा मत करो',क्योंकि वे भूख-प्याससे दृष्टिसे
व्याकुल हो रहे थे॥२०॥ ब्रह्माजीनी घबराकर उनसे
कहा-- ओरे यक्ष-राक्षसो ! तुम मेरी सन्तान हो; इसलिये
मुझे भक्षण मत करो, मेरी रक्षा करो !' (उनमेंसे जिन्होंने
कहा 'खा जाओ, वे यक्ष हुए और जिन्होंने कहा "रक्षा
मत करो', वे राक्षस कहलाये) ॥ २१ ॥
फिर ब्रह्माजीने सात्तिकी प्रभासे देदीप्यमान होकर
मुख्य-मुख्य देवताओंकी रचना की। उन्होंने क्रीडा करते
हुए, ब्रह्माजीके त्यागनेपर, उनका वह दिनरूप प्रकाशमय
शरीर ग्रहण कर लिया ॥ २२॥ इसके पश्चात् ब्रह्माजीने
अपने जघनदेशसे कामासक्त असुरोंको उत्पन्न किया। वे
अत्यन्त कामलोलुप होनेके कारण उत्पन्न होते हो मैथुनके
लिये ब्रह्माजीकी ओर चले ॥ २३ ॥ यह देखकर पहले तो
वे हंसे; किन्तु फिर उन निर्लज असुरोको अपने पीछे लगा
देख भयभीत और क्रोधित होकर बड़े जोरसे
भागे॥ २४ ॥ तब उन्होंने भक्तोंपर कृपा करनेके लिये
उनकी भावनाके अनुसार दर्शन देनेवाले, शरणागतवत्सल
वरदायक श्रीहरिक पास जाकर कहा--॥ २५॥
"परमात्मन् ! मेरी रक्षा कौजिये; मैंने तो आपकी हो
आज्ञासे प्रजा उत्पन्न की थी, किन्तु यह तो पाप्म प्रवृत्त
होकर मुझकों ही तंग करने चली है॥२६॥ नाथ !
एकमात्र आप ही दुखी जीवोका दुःख दूर करनेवाले हैं
और जो आपकी चरण-शरणमें नहीं आते, उन्हें दुःख
देनेवाले भी एकमात्र आप ही है' ॥ २७॥
श्रीमद्धा०-सु०-सा०-- ६
प्रभु तो प्त्यक्षवत् सबके हदयकी जाननेवाले हैं।
उन्होंने ब्रह्माजीकी आतुरता देखकर कहा--'तुम अपने
इस कामकलुषित शरीरको त्याग दो।' भगवानके यो
कहते ही उन्होंने वह शरीर भी छोड़ दिया ॥ २८ ॥
(ब्रह्मजीका छोड़ा हुआ वह शरीर एक सुन्दरौ
स्त्री--संध्यादेवीके रूपमें परिणत हो गया।) उसके
चरणकमलोकि पायजेब इङकृत हो रहे थे। उसकी आँखें
मतवाली हो रही थी और कमर करधनीकी लड़ोंसे
सुशोभित सजीलों साड़ीसे की हुई थी ॥ २९॥ उसके
उभरे हुए स्तन इस प्रकार एक-दूसरेसे सटे हुए थे कि
उनके बीचमें कोई अन्तर ही नहीं रह गया था। उसकी
नासिका ओर दन्तावली बड़ी ही सुघड़ थी तथा वह
मधुर-मधुर मुसकराती हुई असुरोकी ओर हाव-भावपूर्ण
देख रही थी॥३०॥ बह नीली-नोली
अलकावलोसे सुशोभित सुकुमारी मानो लज्जाके मारे
अपने अझलमें ही सिमिटी जाती थी। विदुरजी ! उस
सुन्दरीको देखकर सब-के-सब असुर मोहित हो
गये॥ ३१॥ "अहो ! इसका कैसा विचित्र रूप, कैसा
अलौकिक धैर्य और कैसी नयी अवस्था है। देखो, हम
कनो बीचमे यह कैसी वेपरवाह-सी विचर रही
॥ ३२॥
इस प्रकार उन कुबुद्धि दैत्योनि स्नीरूपिणी संध्याके
विषयमे तरह-तरहके तर्क-वितर्क करके फिर उसका बहुत
आदर करते हुए प्रेमपूर्वक पूछा-- ॥ ३३ ॥ 'सुन्दरि !
तुम कौन हो और किसकी पुत्री हो ? भामिनि ! यहाँ
तुम्हारे आनेका कया प्रयोजन है ? तुम अपने अनूप रूपका
यह बेमोल सौदा दिखाकर हम अभागोको क्यों तरसा रही
हो ॥ ३४ ॥ अवले ! तुम कोई भी क्यो न हो, हमें तुम्हारा
दर्शन हुआ--यह बड़े सौभाग्यकी बात है। तुम अपनी
गेंद उझाल-उछालकर तो हम दर्शकोकि मनको मथे
डालती हो ॥ ३५ ॥ सुन्दरि ! जब तुम उछलती हुई गेंदपर
अपनी हथेलीकी थपक्ती मारती हो, तब तुम्हारा
चरण-कमल एक जगह नहीं ठहरता; तुम्हारा कटिप्रदेश
स्थूल स्तनोंके भारसे थक-सा जाता है और तुम्हारी निर्मल
दृष्टिसे भी थकावट झलकने लगती है। अहो ! तुम्हारा
केशपाश कैसा सुन्दर है' ॥ ३६॥ इस प्रकार स््रीरूपसे
प्रकट हुई उस सायड्डालीन सख्याने उन्हें अत्यन्त