याज्ञवल्क्यजीने कह्ा--हे मुनियो! लक्ष्मी एवं सुख-
ज्ञान्तिक इच्छुक तथा ग्रहोंकी दृष्टिसे दुःखित जनको
ग्रहशान्तिके लिये तत्सम्बन्धित यज्ञ करना चाहिये। विद्वानोंके
द्वारा सूर्य, सोम, मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनि, राहु
और केतु-ये नौ ग्रह बताये गये हैं। इनकी अचकि लिये
इनकी मूर्ति क्रमश: इन द्रष्योंसे बनाती चाहिये-
स्फटिक, रक्तचन्दन, स्वर्ण, सुवर्ण, रजत, अयस् (लोहा),
सीसा तथा काल्य । अर्धात् सूर्यग्रहे लिये ताम्र धातु,
चन्द्रके लिये स्फटिक, मंगलके लिये रक्तचन्दन, बुध एवं
यूहस्पतिके लिये स्वर्ण, शुक्रके लिये रजत, शनिके लिये
लोहा, राहुके लिये सीसा तथा केतुके लिये कांस्य धातु
प्रशस्त है।
सूर्य॑का वर्णं लाल, चन्द्रमाका सफेद, मंगलका लाल,
बुध तथा बृहस्पतिका पीला, शुक्रका शेत, शनि, राहु और
केतुका काला वर्ण होता है। इसी वर्णके इनके द्रव्य भी
होते हैं। एक पाटेपर वस्व बिछाकर ग्रहवर्णोंके अनुसार
निर्दिष्ट द्रव्योंके द्वारा विधिपूर्वक उनकी स्थापना तथा पूजा-
होम करे। उन्हें सुवर्ण, वस्त्र तथा पुष्प समर्पित करे। उनके
लिये गन्ध, बलि, धूप, गुग्गुल भी देना चाहिये। तत्पश्चात्
मन्त्रके द्वारा प्रत्येक ग्रह - देवताके निमित्त चर पदार्थ अर्पित
करना चाहिये।
उसके याद यथाक्रम * ॐ आकृष्णेन रजसा०” इस
मन््रके द्वा सूर्य, “ॐ हमे देवा०' मन््रसे चन्द्र, "ॐ
अप्निूर्धादिय: ककुत्०' मन्त्रके द्वारा मंगल, ' ॐ उद्बुष्यस्व० "
मचसे बुध, * ॐ बृहस्पते० ' इस मन्त्रके द्वारा बृहस्पति, ' ॐ
अध्नास्परिखुतम्०' मन्त्रसे शुक्र, ' ॐ शं नो देवी०' मच्रके
द्वारा शनि, ' ॐ कयानश्चि०' मन््रसे राहु तथा ' ॐ केतुं
कृण्वन्० ' मन्त्रके द्वारा केतु ग्रहके लिये आहुति देनी
ताम्र, चाहिये।
इन ग्रहोंके लिये इसी क्रमसे यन्दार, पलाश, खैर,
अपामार्ग (चिचड़ा), पिप्पल, गूलर, ज्ञमी, दुर्वा ओर
कुशकी समिधाएँ विहित है । हन समिधाओंकों घृत, दधि
तथा मधुसे भिश्रितकर हवन करना चाहिये। तदनन्तर
क्रमानुसार उपर्युक्त मन्तरौकि द्वारा षदार्धौकी आहुति
प्रदान करे! यथा- सूर्वके लिये गुड़, चन्द्रके लिये भात,
मंगलके लिये पायस, बुधके लिये साठी चावलकी
खीर, बृहस्यतिके लिये दही-भात, शुक्रके लिये घृत,
शनिके लिये अपूप (पुआ), राके लिये फलका गृदा और
केतुके लिये अनेक वर्णके पकाये हुए धान्यकी आहुति देनी
चाहिये ।
द्विजको चाहिये कि इस क्रमसे प्रत्येक प्रहके लिये
अन्न भी दानकृूपमें दे। तदनन्तर प्रत्येक ग्रहके निभित्त
यथधाक्रम- धेनु, शंख, बैल, सुवर्ण, वस्त्र, अश्व, कृष्णा गौ,
अयस् (शस्त्र आदि) तथा छागकी दक्षिणः देती चाहिये ।
इस प्रकार ग्रहोंकी सदैव पूजा करनेसे मनुष्यको राज्यादि
फल प्राप्त होते हैं। (अध्याय १०१)
2.)
वानप्रस्थ-धर्म-निरूपण
याज्रवल्क्यजीने कहा-- हे महर्थियो ! अब मैं चानप्स्था्रमके
धर्मका वर्णन कर रहा हूँ, आप सभी इसका श्रवण करें।
वानप्रस्थ-आश्रममें प्रविष्ट पुरुषको अपनी पत्रीके
संरक्षणका भार पुत्रोंके ऊपर छोड़कर अथवा पत्रीके सहित
खनमें जाना चाहिये।
वानप्रस्थ-धर्मका पालन करनेवाला ब्रह्मचर्य-
निर्वाह करते हुए अपनी श्रौत- अग्नि एवं गृह -अग्निके साथ
कन्ये जाय। शान्त एवं क्षपावान् रहकर वह अहर्निश
देवोपासनामे निमग्न रहे | वह बिना जोती हुई भूमिसे उत्पन्न
अन्नके द्वारा अग्रिदेव, पितरों, देवताओं, अतिथियों तथा
भृत्योंकों तृप्त (संतुष्ट) करे। आत्मज्ञानमें तत्पर रहनेवाला
वह वानप्रस्थ दादी, जटा तथा लोमरा्िको धारण करे,
इन्द्रियॉंका दमन करे, त्रिकाल ज्ञान करे एवं अपनेको प्रतिग्रह
अर्थात् दान-ग्रहणसे दूर रखे।
ऐसे व्यक्तिको स्वाध्यायवान्, भगवद्ध्यानपरायण
सभी लोगोंके हितसाधनमें लगे रहना चाहिये। उसको
जौवनयापनके लिये सीमित अर्थ-संग्रह करना चाहिये।
उसके पास जो कुछ शेष सामग्री हो, उसका आशिन-
मासमें परित्यागकर यह ब्रतादिके द्वारा ही समय व्यतीत
करे। यदि शक्ति हो तो एक मास या एक पक्षका व्रतकर