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मं० ९ सू० १०५ १५१

११५१. अभी ये देवा: स्थन त्रिष्वा रोचने दिवः।

कदर ऋतं कदनृतं क्व प्रत्ना व आहुतिर्वित्तं मे अस्य रोदसी ॥५ ॥

हे देवो ! तीनों (पृथ्वी, अन्तरिक्ष एवं च्ुलोक) में से आपका वास ब्युलोक में है आपका ऋत वास्वविक

रूप क्‍या है ? अनृत (माया युक्त) रूप कहाँ है ? आपने प्रारंभ में सृजन यज्ञ में ) जो आहुति डाली, वह कहाँ

है? चुलोक एवं पृथ्वी हमारे भावों को समझें (और पूर्ति करें ) ॥५ ॥

११५२. कद्र ऋतस्य धर्णसि कद्वरुणस्य चक्षणम्‌।

कदर्यम्णो महस्पथाति क्रामेम दृढो वित्तं मे अस्य रोदसी ॥६ ॥

आपके श्रेष्ठ सत्य का निर्वाह करने वाले नियम कहाँ हैं? वरुण की व्यवस्थादृष्टि कहाँ है ? सर्वश्रेष्ठ

अर्यमा के मार्ग कौन-कौन से है ? जिससे हम दुष्टजनों से राहत पा सकें । हे लोक और पृथिवि ! हमारी

इस जिज्ञासा के अभिप्राय को समझें ॥६ ॥

११५३. अहं सो अस्मि यः पुरा सुते वदामि कानि चित्‌।

तं मा व्यन्त्याध्यो३ वृको न तृष्णजं मृगं वित्तं मे अस्य रोदसी ॥७ ॥

पिछले यज्ञ में सोमनिष्पादन काल में स्तोत्र का पाठ हमने किया था, लेकिन अब मानसिक व्यथां .

भेड़िये द्वारा प्यासे हरिण को खाये जाने के समान हो, हमें व्यथित किये हुए हैं । हे च्वावापृधिवी देवि ! हमारी

इन व्यथाओं को समझें और दूर करें ॥७ ॥

११५४. स॑ मा तपन्त्यभितः सपत्नीरिव पर्शवः ।

पृषो न शिश्ना व्यदन्ति माध्यः स्तोतारं ते शतक्रतो वित्तं मे अस्य रोदसी ॥८ ॥

दो सौतों ( पलियो ) कौ तरह हमारे पार्श्व (वाजु) मे रहने बालो ऋमना हमें सता रहो हैं हे शतक्रतो !

जिस प्रकार चूहे माड़ी लगे धागो को खा जाते हैं, वैसे ही आपकी स्तुति करने वालो को भी मन की पीडां

सता रही हैं। हे धवावापृचिवी देवि ! हमारी इन व्यधाओं को समझें ओर दूर करें ॥८ ॥

११५५. अमी ये सप्त रश्मयस्तत्रा मे नाभिरातता ।

त्रितस्तद्वदाप्त्यः स जामित्वाय रेभति वित्तं मे अस्य रोदसी ॥९॥

ये सात रंगो वाली सूर्य की किरणे जहाँ तक हैं, वहाँ तक हमारा नाभि क्षेत्र (पैतृक प्रभाव) फैला है ।

इसका ज्ञान जल के पुत्र 'त्रित' को है । अतएव प्रीतियुक्त मैत्री भाव हेतु हम प्रार्थना करते है । हे चावापृथिवि।

आप हमारी इन प्रार्थनाओं के अभिप्राय को समझें ॥९ ॥

११५६. अमी ये पञ्चोक्षणो मध्ये तस्थुर्महो दिवः ।

देवत्रा नु प्रवाच्यं सध्रीचीना नि वावृतुर्वित्तं मे अस्य रोदसी ॥१० ॥

(कापनाओं) की वर्षा करने वाते ये पाँच शक्तिशाली देव (अग्नि सूर्य, वायु, चन्द्रमा ओर विद्युत्‌) विस्तृत

चुलोक में स्थित हैं । देवों मे प्रशंसनीय ये देवगण आवाहन करते ही पुजा ग्रहण करने के लिए उपस्थित हो जाते

हैं। इसके बाद तृप्त होकर अपने स्थान पर लौट जाते है । अर्थात्‌ मन के साथ ये इन्द्रियाँ भी उपासना मे तल्लीन

हो जाती हैं । हे चुलोक और पृथिवि ! आप हमारी इस प्रार्थना के अभिप्राय को जाने ॥१० ॥

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