९७ अधर्ववेद संहिता भाग-२
सद्गृहस्थ कहे कि हम इस (व्रात्य अतिथि) देव के लिए जल की स्तुति (प्रार्थना) करते हैं । इस अतिथिदेव
को गृह में निवास प्रदान करते हैं तथा देवस्वरूप समझकर इसे परोसते हैं ॥१३ ॥
४०९५. तस्यामेवास्य तद् देवतायां हुतं भवति य एवं वेद ॥ १४ ॥
जो इस तत्वज्ञान का मर्मज्ञ है, उसी देवता में उस सद्गृहस्थ का अतिथि सत्कार रूप हवन होता है ॥१४ ॥
[ १४- अध्यात्म-प्रकरण सूक्त (चतुर्दश पर्याय ) ]
[ ऋषि- अथर्वा । देवता- अध्यात्म अथवा वात्य । छ्द- द्विपदासुरी गायत्री, १ त्रिपदानुष्टप् , ३, ९ पुर
उष्णिक्, ५ अनुष्टुप्, ७ प्रस्तार पंक्ति, ११ स्वराट् गायत्री, १२, १४, १६, १८ भुरिक् प्राजापत्या अनुष्टुप् १३,
१५, १७ आर्ची पंक्ति, १९ भुरिक् नागी गायत्री, २१ प्राजापत्या वरिष्टुप् , २३ निचृत् आर्ची पक्ति । ]
४०९६. स यत् प्राचीं दिशमनु व्यचलन्मारुतं शर्धो भूत्वानुव्य चलन्मनोऽन्नादं कृत्वा ॥१॥
जब उसने पूर्वदिशा की ओर प्रस्थान किया, तब बलशाली होकर वायुदेव के अनुकूल चलते हुए, उसने
अपने मन को अन्न भक्षण करने वाला बनाया ॥१ ॥
४०९७. मनसान्नादेनान्नमत्ति य एवं वेद ॥२ ॥
जो इस विषय का मर्मज्ञ है, वह अन्न भक्षण करने की मनोवृत्ति से अन्न सेवन करता है ॥२ ॥
४०९८. स यद् दक्षिणां दिशमनु व्यचलदिन्द्रो भूत्वानुव्य चलद् बलमन्नादं कृत्वा ॥३ ॥
जिस समय उसने दक्षिण दिशा में गमन किया, तब बल- सामर्थ्यं को अत्राद बनाकर और स्वयं को इन्द्र
(पराक्रमशील) बनाते हुए वह गतिशील हुआ ॥३ ॥
४०९९. बलेनान्नादेनान्नमत्ति य एवं वेद ॥४ ॥
जो इस विषय के ज्ञाता है, वह अन्नाद (अन्न भक्षक) बल- सामर्थ्यं से अन्न का भक्षण करता है ॥४ ॥
४१००. स यत् प्रतीचीं दिशमनु व्यचलद् वरुणो राजा भूत्वानुव्य चलदपो ऽन्नादीः कृत्वा ॥
जब उसने पश्चिम दिशा कौ ओर गमन किया, उस समय जल को अन्नाद् (अन्न सेवन करने वाला) बनाते हुए
स्वयं राजा वरुण बनकर चला ॥५ ॥
४१०१. अद्धिरन्नादिभिरन्नमत्ति य एवं वेद ॥६ ॥
जो इस बात का मर्मज्ञ है, वह अन्न-भक्षक जल के साथ अन्न का उपभोग करता है ॥६ ॥
४१०२. स यदुदीचीं दिशमनु व्यचलत् सोमो राजा भूत्वानुव्य
चलत् सप्तर्षिभिईत आहुतिमन्नादीं कृत्वा ॥७ ॥
जब उसने उत्तर दिशा की ओर गमन किया, तब सप्तर्षियों द्वारा प्रदत्त आहुतियों को अत्र भक्षक आहुति
बनाकर राजा सोम की अनुकूलता में चला ॥७ ॥
४१०३. आहुत्यान्नाद्यान्नमत्ति य एवं वेद ॥८ ॥
जो इस बात का ज्ञाता है, वह अन्नभक्षक आहुतियों द्वारा अन्न का उपभोग करता है ॥८ । ।
४१०४. स यद् ध्रुवां दिशमनु व्यचलद् विष्णुर्भूत्वानुव्य चलद् विराजमन्नादीं कृत्वा ॥९॥
जब वह धुवदिशा की ओर प्रस्थान किया, तब विराट् पृथ्वीको अन्नपरयी बनाकर विष्णुरूप बन संचरित हुआ