काण्ड-५ सूक्त-१० १३
९९९. अन्तरिक्षाय स्वाहा ॥४॥
(हदय के) अन्तरिश्च में विद्यमान देवता के लिए यह हवि समर्पित है ॥४ ॥
१०००. दिवे स्वाहा ॥५ ॥
स्वर्गलोक (गमन) के लिए यह हवि समर्पित है ॥५ ॥
१००१. पृथिव्यै स्वाहा ॥६ ॥
पृथ्वी (पर हर्षपूर्वक निवास करने) के लिए यह हवि समर्पित है ॥६ ॥
१००२. सूर्यो मे चक्षुर्वातः प्राणोडन्तरिक्षमात्मा पृथिवी शरीरम् ।
अस्तृत्तो नामाहमयमस्मि स आत्मानं नि दथे द्यावापृथिवीभ्यां गोपीथाय ॥७ ॥
सूर्यदेव हमारे नेत्र हैं, वायुदेव प्राण हैं, अन्तरिक्षदेव आत्मा और पृथ्वी शरीर है । यह हम अमर नाम वाले
हैं, द्यावापृथिवी द्वारा संरक्षित होने के लिए हम अपनी आत्मा को उनके आश्रित करते हैं ॥७ ॥
१००३, उदायुरुद् बलमुत् कृतमुत् कृत्यामुन्मनीषामुदिन्द्रिवम् । आयुष्कृदायुष्पत्नी
स्वधावन्तौ गोपा मे स्तं गोपायतं मा। आत्मसदौ मे स्तं मा मा हिंसिष्टम् ॥८ ॥
हे द्यावा-पृथिवि ! आप हमारे आयु, बल, कर्म, कृत्या, बुद्धि तथा इन्द्रिय को उत्कृष्ट बनाएँ । हे आयुष्य बढ़ाने
वाले तथा आयु की रक्षा करने वाले स्वधावान् द्यावा-पृथिवी आप दोनों हमारे संरक्षक हैँ । आप हममे विद्यमान
रहकर हमारी सुरक्षा करें, हमें विनष्ट न होने दें ॥८ ॥
[१० - आत्मरक्षा सूक्त ]
[ ऋषि - ब्रह्मा । देवता - वास्तोष्पति । छन्द ~ यवमध्यात्रिपदागायत्री, ७ यवमध्याककुप्, ८ पुरोधृति
इबनुष्टुब्गर्भा पराष्टिस्व्थवस्राना चतुष्पदातिजगती । ]
पहले वाले सूक्त (क्र० ९) में सायक ने दिव्य शक्तियों के प्रति आस्था व्यक्त करते हुए स्वय॑ को उनके प्रति सपर्षित किया
है । इस आस्था से साधक को दिव्य संरक्षण प्राप होता है, जिसे अश्प - वर्म (पत्वा का आर्थात् अत्यन्त दृढ़ क्च) कहा गया
है। उसी से रखा की प्रार्थना (मंत्र ० ९ से ७ तक) की गयी है । आठवें मंत्र में , अपने य्यक्तित्व में विराट् सृष्टि के तेजस्वी
अंशों के समावेश का भाव है। वृक्ष से बीज तथा वीज से वृक्ष के चक्र की तरह दिव्यता से पनुष्य तथा मनुष्य से दिव्यता का
चक्र गतिशील रहता है । इस दिव्य भाव रूपी कवच के भीतर ही मनुष्यता सुरक्षित रहती है-
१००४. अश्मवर्म मेऽसि यो मा प्राच्या दिशो ऽघायुरभिदासात्। एतत् स ऋच्छात् ॥९।
हे अश्मवर्ष (पत्थर का कवच) ! आप हमारे है । हमे मारने की इच्छा वाले जो मनुष्य पूर्व दिशा से हमें
विनष्ट करना चाहते हैं, वे स्वयं नष्ट हो जाएँ ॥१ ॥
१००५. अश्मवर्म मेऽसि यो मा दक्षिणाया दिशो 5घायुरभिदासात् | एतत् स ऋच्छातू।
हे अश्मवर्म !आप हमारे हैं । जो मनुष्य दक्षिण दिशा से हमें विनष्ट करना चाहते हैं, वे स्वयं नष्ट हो जाएँ ॥२ ।
१००६. अश्मवर्म मेऽसि यो मा प्रतीच्या दिशो ऽघायुरभिदासात् | एतत् स ऋच्छात् ॥
हे अश्मवर्म ! आप हमारे है । जो मनुष्य पश्चिम दिशा से हमे विनष्ट करना चाहते हैं, वे स्वयं नष्ट हो जाएँ ॥३ ।
१००७. अश्मवर्म मेऽसि यो मोदीच्या दिशो ऽघायुरथिदासात्।
एतत् स ऋच्छात् ॥४ ॥
हे अश्मवर्म ! आप हमारे हैं । जो मनुष्य उत्तर दिशा से हमें विनष्ट करना चाहते हैं, वे स्वयं नष्ट हो जाएँ ॥४ ॥