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यदा नोपचयस्तस्य न चैवापचयो नृप ।
तदा पीवानसीतीर्थं कया युक्त्या त्वयेरितम् ॥ ७२
भूपादजङ्काकस्घूरुजटठरादिषु संस्थिते ।
दिबिकेय॑ यथा स्कन्धे तथा भारः समस्त्वया ॥ ७३
तथान्यैर्जन्तुभिर्भूप शिबिकोढा न केवलम् ।
हौलदमगृहोत्थोऽपि पृथिवी सष्भवोऽपि वा । ७४
यदा पुंसः पृथग्भावः प्राकृतैः कारणैर्नृप ।
सोढव्यस्तु तदायासः कथं वा नृपते मया ॥ ७५
यदद्रव्या शिविका चेयं तदद्रव्यो भूतसंग्रहः ।
भवतो मेऽखिलस्यास्य ममत्वेनोपवंहितः ॥ ७६
श्रीपएाशर उक्त
'एवमुक्त्वाभवन्पौनी स वहज्छिबिकां द्विज ।
सोऽपि राजावतीरयो्व्या तत्पादौ जगृहे त्वरन् ॥ ७9७
राजोवाच
भो भो विसुज्य शिविकां प्रसादं करु मे द्विज ।
कथ्यतां को भवानत्र जाल्मरूपधरः स्थितः ॥ ७८
यो भवान्यन्निमित्तं वा यदागमनकारणम् ।
तत्सर्व कथ्यतां विद्रन्पष्ं शुश्रषवे त्वया ॥ ७९
ब्राह्मण उवाच
श्रूयतां सोऽहमित्येतहृक्तं भूप न शाक्यते ।
उपभोगनिमित्तं च सर्वत्रागमनक्रिया॥ ८०
सुखदुःखोपभोगौ तु तौ देहाद्युपपादकौ ।
धर्माधर्मोद्धवौ भोक्तुं जन्तुर्देहादिमृच्छति ॥ ८१
सर्वस्यैव हि भूपाल जन्तोः सर्वत्र कारणम् ।
धर्माधर्मौ यतः कस्मात्कारणं पृच्छयते त्वया ॥ ८२
गरफेवाच
धर्माधमों न सन्देहस्सर्वकार्येषु कारणम् ।
उपभोगनिपित्तं च देहाहेहान्तरागमः ॥ ८३
यत्त्वेतद्भवता प्रोक्त सोऽहमित्येतदात्मनः ।
वक्तुं न शक्यते श्रोतु तन्ममेच्छा प्रवर्तते ॥ ८४
आओविष्णुपुराण
{ अआ" ९३
वह एक ही ओतप्रोत है । अतः उसके वुद्धि अथवा क्षय
कभी नहीं होते ॥ ७१॥ हे नृप ! जच उसके उपचव
{युद्धि ), अपचय (क्षय) ही नही होते तो तुमने यह यत्त
किस युक्तिसे कही क्कि “तू मोटा दै ?'॥ २ ॥ यदि
क्रमश: पृथिची, पाद, जंघा. कटि, ऊरु ओर उदरपर स्थित
कन्धोंर्र रखी हुई यह दिनि मेरे लिये भाररूप हो
सकती है तो उसी प्रकार तुम्हारे लिये भी तो हो सकतो है 7
[ ज्योकि ये पृथिवों आदि तो जैसे तुमसे पृथक् हैं वैसे ही
मूझ आत्पासे भौ सर्वथा भित्र हैं] ॥ 3३ ॥ तथा इस
युक्तिसे तो अन्य समस्त जीवोने भी केवल दिबिका ही
नहीं, बल्कि सप्पूर्ण पर्वत, वुक्च, गृह और युधिवौ आदिकः
भार उठा रखा है । ५४ ॥ हे राजन् ! जब प्रकृतिजन्य
कारणोंसे पुरुष सर्वथा भिन्न है तो उसन्त परिश्रम भी
मुझको कैसे हो सकता है ? ॥ ७५॥ और जिस द्रव्यसे
यह दिबिका बनी हुई है उसीसे यह आपका, मेरा अथवा
और सन्ना रीर भो बना है; जिसमें क्रि ममत्वक्ता आरोप
किया हुआ है ॥ ७६ ॥
श्रीपरादारजी खोले--ऐसा कह ते द्विजवर
रिबिच्छक्् चारण किये हुए ही मौन हो गवे; और राजाने भी
तुरन्त पृथिवीपर उतरकर उनके चरण पकड लिये ॥ ७७ ॥
राजा ब्ोल्ला--अहो प्रिजरोज ! इस शिक्काकों
छोड़कर आप मेंरे ऊपर कृपा कीजिये। प्रभो ! कपया
खताइये इस जडलेषको धारण किये आप ब्यैन हैं 2 ॥ ५८ ॥
ट विद्वनू ! आप क्न हैं ? किस निमित्ते यहाँ आपका
आना हुआ 2? तथा अनिका क्या कारण है ? यह सब आप
मुझसे किये । मुझे आपके लिपययें सुननेक्तो बड़ी उल्काठा
हो रहो है ॥ ७९ ॥
ब्राह्मण बोले--हे राजन् ! सुनो, मैं अमुक बँ
यह वात कही नहीं जा सकती और तुमने जो मेर यहाँ
आनेज्य कारण पूछा सो आना-जाना आदि सभी क्रियाएँ
कर्मफलके उपभोगके लिये ही हुआ करती हैं । ८० ॥
सुख-दुःखका भोग हो देह आदिकी प्राप्ति करानेवात्म है
| तथा पर्माधर्मजन्य सुख-दु:खोक्य्रे भोगनेके लिये हो जीव
| देदादि धारण करता ड ॥ ८१॥ हे भूपालः ! समस्तं
जीरकी सम्पूर्ण अवस्था ओके कारण ये धर्म और अधर्म
ही हैं, फिर विशेषरूपसे मेरे आगमन कारण तुम क्यों
पूछते हो 2 ॥ ८२ ।
राजा बोला--अवश्य हो, समस्त कार्याँमें -धर्म
और अधर्म ही कारण हैं और कर्मफलके उपभोगके लिये
ही एक देहसे दूसरे देहमें जाना होता है॥ ८३ ॥ किन्तु
आपने जो कहा कि "मै कौन हूँ---यह नहीं बताया जा