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१५२

यदा नोपचयस्तस्य न चैवापचयो नृप ।

तदा पीवानसीतीर्थं कया युक्त्या त्वयेरितम्‌ ॥ ७२

भूपादजङ्काकस्घूरुजटठरादिषु संस्थिते ।

दिबिकेय॑ यथा स्कन्धे तथा भारः समस्त्वया ॥ ७३

तथान्यैर्जन्तुभिर्भूप शिबिकोढा न केवलम्‌ ।

हौलदमगृहोत्थोऽपि पृथिवी सष्भवोऽपि वा । ७४

यदा पुंसः पृथग्भावः प्राकृतैः कारणैर्नृप ।

सोढव्यस्तु तदायासः कथं वा नृपते मया ॥ ७५

यदद्रव्या शिविका चेयं तदद्रव्यो भूतसंग्रहः ।

भवतो मेऽखिलस्यास्य ममत्वेनोपवंहितः ॥ ७६

श्रीपएाशर उक्त

'एवमुक्त्वाभवन्पौनी स वहज्छिबिकां द्विज ।

सोऽपि राजावतीरयो्व्या तत्पादौ जगृहे त्वरन्‌ ॥ ७9७

राजोवाच

भो भो विसुज्य शिविकां प्रसादं करु मे द्विज ।

कथ्यतां को भवानत्र जाल्मरूपधरः स्थितः ॥ ७८

यो भवान्यन्निमित्तं वा यदागमनकारणम्‌ ।

तत्सर्व कथ्यतां विद्रन्पष्ं शुश्रषवे त्वया ॥ ७९

ब्राह्मण उवाच

श्रूयतां सोऽहमित्येतहृक्तं भूप न शाक्यते ।

उपभोगनिमित्तं च सर्वत्रागमनक्रिया॥ ८०

सुखदुःखोपभोगौ तु तौ देहाद्युपपादकौ ।

धर्माधर्मोद्धवौ भोक्तुं जन्तुर्देहादिमृच्छति ॥ ८१

सर्वस्यैव हि भूपाल जन्तोः सर्वत्र कारणम्‌ ।

धर्माधर्मौ यतः कस्मात्कारणं पृच्छयते त्वया ॥ ८२

गरफेवाच

धर्माधमों न सन्देहस्सर्वकार्येषु कारणम्‌ ।

उपभोगनिपित्तं च देहाहेहान्तरागमः ॥ ८३

यत्त्वेतद्भवता प्रोक्त सोऽहमित्येतदात्मनः ।

वक्तुं न शक्यते श्रोतु तन्ममेच्छा प्रवर्तते ॥ ८४

आओविष्णुपुराण

{ अआ" ९३

वह एक ही ओतप्रोत है । अतः उसके वुद्धि अथवा क्षय

कभी नहीं होते ॥ ७१॥ हे नृप ! जच उसके उपचव

{युद्धि ), अपचय (क्षय) ही नही होते तो तुमने यह यत्त

किस युक्तिसे कही क्कि “तू मोटा दै ?'॥ २ ॥ यदि

क्रमश: पृथिची, पाद, जंघा. कटि, ऊरु ओर उदरपर स्थित

कन्धोंर्र रखी हुई यह दिनि मेरे लिये भाररूप हो

सकती है तो उसी प्रकार तुम्हारे लिये भी तो हो सकतो है 7

[ ज्योकि ये पृथिवों आदि तो जैसे तुमसे पृथक्‌ हैं वैसे ही

मूझ आत्पासे भौ सर्वथा भित्र हैं] ॥ 3३ ॥ तथा इस

युक्तिसे तो अन्य समस्त जीवोने भी केवल दिबिका ही

नहीं, बल्कि सप्पूर्ण पर्वत, वुक्च, गृह और युधिवौ आदिकः

भार उठा रखा है । ५४ ॥ हे राजन्‌ ! जब प्रकृतिजन्य

कारणोंसे पुरुष सर्वथा भिन्न है तो उसन्त परिश्रम भी

मुझको कैसे हो सकता है ? ॥ ७५॥ और जिस द्रव्यसे

यह दिबिका बनी हुई है उसीसे यह आपका, मेरा अथवा

और सन्ना रीर भो बना है; जिसमें क्रि ममत्वक्ता आरोप

किया हुआ है ॥ ७६ ॥

श्रीपरादारजी खोले--ऐसा कह ते द्विजवर

रिबिच्छक्् चारण किये हुए ही मौन हो गवे; और राजाने भी

तुरन्त पृथिवीपर उतरकर उनके चरण पकड लिये ॥ ७७ ॥

राजा ब्ोल्ला--अहो प्रिजरोज ! इस शिक्काकों

छोड़कर आप मेंरे ऊपर कृपा कीजिये। प्रभो ! कपया

खताइये इस जडलेषको धारण किये आप ब्यैन हैं 2 ॥ ५८ ॥

ट विद्वनू ! आप क्न हैं ? किस निमित्ते यहाँ आपका

आना हुआ 2? तथा अनिका क्या कारण है ? यह सब आप

मुझसे किये । मुझे आपके लिपययें सुननेक्तो बड़ी उल्काठा

हो रहो है ॥ ७९ ॥

ब्राह्मण बोले--हे राजन्‌ ! सुनो, मैं अमुक बँ

यह वात कही नहीं जा सकती और तुमने जो मेर यहाँ

आनेज्य कारण पूछा सो आना-जाना आदि सभी क्रियाएँ

कर्मफलके उपभोगके लिये ही हुआ करती हैं । ८० ॥

सुख-दुःखका भोग हो देह आदिकी प्राप्ति करानेवात्म है

| तथा पर्माधर्मजन्य सुख-दु:खोक्य्रे भोगनेके लिये हो जीव

| देदादि धारण करता ड ॥ ८१॥ हे भूपालः ! समस्तं

जीरकी सम्पूर्ण अवस्था ओके कारण ये धर्म और अधर्म

ही हैं, फिर विशेषरूपसे मेरे आगमन कारण तुम क्‍यों

पूछते हो 2 ॥ ८२ ।

राजा बोला--अवश्य हो, समस्त कार्याँमें -धर्म

और अधर्म ही कारण हैं और कर्मफलके उपभोगके लिये

ही एक देहसे दूसरे देहमें जाना होता है॥ ८३ ॥ किन्तु

आपने जो कहा कि "मै कौन हूँ---यह नहीं बताया जा

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