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* पुराणं गारुडं वक्ष्ये सारं विष्णुकथाश्रयम् *
[ संक्षिप्त गरुडपुराणाकु
जप (अवश्य) करे। गायत्रीका एक सहस्र जप उत्तम, एक
सौ जप मध्यम तथा दस बार किया गया जप कनिष्ठ जप
कहलाता है।
एकाप्रचित्त होकर उदय होते हुए भगवान् भास्करका
उपस्थान करे। ऋवेद, यजुर्वेद तथा सामवेदमें आये हुए
विविध सौर मन्त्रोंसे देवाधिदेव महायोगेश्वर भगवान् दिकाकरका
उपस्थान करके पृथिवीपर मस्तक टेककर इस मन्त्रसे
प्रणाम करे-
ॐ खरडोल्काय शान्ताय कारणश्रयहेतये ॥
निदेदयापि चात्मानं नमस्ते ज्ञानरूपिणे ।
त्वमेव ब्रह्म परमपापो च्योती रसोऽमृतम् ॥
भूर्भुवः स्वस्त्वमोङ्कारः सर्वो रुद्रः सनातनः।
(५०॥ २८-३०)}
शान्तस्वरूपं भगयान् भास्कर आप सृष्टि, स्थिति और
संहार-- इन तीनों कारणोकि कारण हैं, आप ज्ञानस्वरूप है ।
मैं आपको आत्मनिवेदन करता हूँ, आप ही परब्रह्म हैं, आप
ही ज्योतिःस्वरूप, अप्-स्वरूप, रसरूप तथा अमृतस्वरूप
हैं। भू, भुवः, स्वः-ये तौनों आप ही हैं और आप ही
3>काररूप, सर्वस्वरूप रुद्र तथा अविनाशौ हैं, आपको
नमस्कार हैं।
इस उत्तम आदित्यहृदय-स्तोत्रका जप करके भगवान्
दिवाकरको प्रात: और मध्या (तथा सायंकाल)-में नमस्कार
करना चाहिये।
इसके पश्चात् घर आ करके ब्राह्मण पुन: विधिवत्
आचमन करे ।
तदनन्तर उसे अग्निको प्रज्वलित करके विधिवत् भगवान्
अग्निदेवको आहुति प्रदान कनौ चाहिये। मुख्य अधिकारीकी
अशच्छवस्थाप उसकी आज्ञा प्राप्त करके ऋत्विक् पुत्र अथवा
यत्नो, शिष्य या सहोदर भाता भी हवन के। मचविहौन एवं
विधिकी उपेक्षा करके किया गया कोई भी कर्म इस लोक या
परलोके फल देनेवाला नहीं होता।
तदनन्तर देवता ओंँको नमस्कारं करके (अर्घ्य, पाच्च,
चन्दन, सुगन्धित पदार्थका अनुलेपन, वस्त्र तथा नैवेद्यादि)
पूजाके ठपचारोौको नियेदनकर गुरुका पूजन करे और उनके
हित-साधनमें लग जाय। तत्पश्चात् प्रयत्नपूर्वक यथाज्ञकति
द्विजको वेदाभ्यास करना चाहिये और उसके बाद दष्ट
मन्त्रोंका जप {वेदपारायण) करके शिष्योंके अध्यापन-
कार्ये प्रवृत्त होना चाहिये। वह शिष्योको वेदार्थं धारण
कराये और दत्तचित्त होकर वेदार्थका विचार करे । द्विजोत्तम
धर्मशास्त्र आदि विविध शास्त्रोंका अवलोकन करे और
येदादि निगमशास्त्रों (उपनिषदों) तथा व्याकरणादि बेदाज़ोंका
अच्छी प्रकार अवलोकन करे। इसके बाद बह पुनः योग-
क्षेमके लिये राजा या श्रीमानके पास जाय और अपने
परिवारके लिये विविध प्रकारके अर्थोंका उपार्जन करें।
इसके पश्चात् मध्याह कालके आनेपर स्नान करनेके
लिये शुद्ध मिट्टी, पुष्य, अक्षत, तिल, कुश और गोमय
(गायके गोबर) आदि पदार्थोंकों एकत्र करना चाहिये ।
उसके बाद नदी, देव, पोखर, तडाग या सरोवरमें जाकर
स्नान करे। प्रत्येक दिन तडाग, सरोवर या नदी आदिमे
पाँच मृत्तिकापिण्ड बिना निकाले स्नान करना दोषयुक्त होता
है। (अतः पाँच पिण्ड मिट्टी निकाल करके हौ स्नान करना
चहिये ।) स्नानके समय {स्नानके लिये लायी गयी)
मिट्टीके एक भागसे सिर धोना चाहिये, दूसरे भागसे नाभिके
ऊपरी भागको और तौसरे भागसे नाभिसे नीचेके भागका
तथा मृत्तिकाके छठे भागसे पैरोंका प्रक्षालन करना चाहिये ।
इन मृत्तिकापिण्डोंकों परिमाणमें पके हुए आँवलेके फलके
समान होना चाहिये। मृत्तिकाके समान हौ गोमय स्नान भी
होना चाहिये। तदनन्तर शरीरके अर््गको विधिवत् धोकर
आचमन करके स्नान करना चाहिये ।
जलाशयके तीरपर स्थित होकर ही मृत्तिक, गोमय आदिका
अपने अङ्गि लेपन कस्त चाहिये ओर इस लेपनके अङ्गभूत
स्नानके अनन्तर पुनः वारुण (वरुणदेवताके)-मन्रोंसे जलाशयके
जलका अभिमतत्रण करके पुनः जल-स्नान कना चाहिये;
क्योंकि जल भगवान् विष्णुका हो रूप है। यह स्नानकी प्रक्रिया
प्रणवस्वरूप भगवान् सूर्यका दर्शनकर जलाशयमें तीन बार
निमज्जन (डबकौ लगाना) -से पूरी होती दै। तदनन्तर
स्नानाङ्ग आचमन करके नीचे लिखे मन्रसे आचमन करे--
अन्तश्चरसि भूतेषु गुहायां विश्वतोमुखः ॥
त्वं यज्ञस्त्वं वषट्कार आपो योती रसोऽमृतम्।
(५० ४५-४४ )
है जलदेव! आप समस्त प्राणियोंके अन्तःकरणरूपी
गुहामें विचरण करते हैं। आप सर्वत्र पुखवाले हैं। आप ही
यज्ञ हैं। आप हौ वषट्कार हैं। आप हो ज्योतिःस्वरूप तेज
और आप ही अमृतमय रसस्वरूप हैं।