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अतएव उन्होने मेरे उद्धारकौ भी बात बता दी

ओर कहा-“राजन्‌। प्रत्येक छठे दिन मध्याहकालमे

तुझे जो कोई मिले, उसे तू खा जाना-बह तेरा

आहार होगा। जब तुझे बाण लगेगा और उसके

आधघातसे तेरे प्राण कण्ठे आ जाय, उस समय

किसी ब्राह्मणके मुखसे जब ' ॐ नमो नारायणाय"

यह मन्त्र तेरे कानों पदटैगा, तब तुझे स्वर्गकी

प्राप्ति हो जायगी--इसमें कोई संशय नहीं ।'

मुने! मैंने दूसरेके मुखसे भगवान्‌ विष्णुका

यह नाप सुना है । परिणामस्वरूप मुझ ब्रह्मद्रेषीको

भी भगवान्‌ नारायणका दर्शन सुलभ हो गया।

फिर जो ब्राह्मणोका सम्मानपूर्वक अपने मुँहसे

" ॐ हरये नमः ' इस मन््रका उच्चारण करते हुए

प्राणोका त्याग करता है तो वह परमपवित्र पुरुष

जीतेजी ही मुक्त है । मैं भुजा उठाकर बार-बार

कहता हँ यह सत्य है, सत्य है और निश्चय ही

सत्य है। ब्राह्मण चलते-फिरते देवता हैं। भगवान्‌

पुरुषोत्तम कूटस्थ पुरुष हैं।'

ऐसा कहकर शुद्ध अन्तःकरणवाला वह बाघ

(दिव्य पुरुष) स्वर्ग चला गया और ब्राह्मण

आरुणि भी बाघके पंजेसे छूटकर व्याधसे कहने

लगे--आज बाघ मुझे खानेके लिये उद्यत हो गया

था। ऐसे अवसरपर तुमने मेरी रक्षा की है।

अतएव उत्तम त्रतका पालन करनेवाले बत्स! मैं

तुमपर संतुष्ट हूँ, तुम वर माँगो।

व्याधने कहा--ब्राह्मणदेवता! मेरे लिये यही

वर पर्याप्त है, जो आप प्रेमपूर्वक मुझसे बातें कर

रहे हैं। भला, आप ही बताइये--इससे अधिक

रसे मुझे करना ही क्‍या है?

आरुणिने कहा--व्याध! तुम्हारी तपस्या

+ संक्षिप्त श्रीवराहपुराण +

[ अध्याय ३७

करनेकी इच्छा थी, अतएव तुमने मुझसे प्रार्थना की

थी। किंतु अनघ! उस समय तुममें अनेक प्रकारके

पाप थे। तुम्हारा रूप बड़ा भयंकर था। परंतु अब

तुम्हारा अन्तःकरण परम पवित्र हो गया है; क्योकि

देविका नदीमें स्नान करने, मेरे दर्शन करने तथा

चिरकालतक भगवान्‌ विष्णुके नाम सुननेसे तुम्हारे

पाप नष्ट हो गये है, --इसमे कोई संशय नही ।

साधो! अब मेरा एक वर स्वीकार कर लो, वह

यह कि तुम अब यहीं रहकर तपस्या करो । तुम

इसके लिये बहुत पहलेसे इच्छुक भी थे।

व्याध बोला- ऋषे | आपने जिन परम प्रभु

भगवान्‌ नारायण और विष्णुकी चर्चा की है, उन्हें

मानव कैसे प्राप्त कर सकते हैं? यह बतानेकी

कृपा करें-यही मेरा अभीष्ट वर है।

ऋषिने कहा - व्याध ! कोई भी पुरुष सनातन

श्रीहरिके उद्देश्यसे जिस किसी व्रतको भक्तिपूर्वक

करनेमे संलग्न हो जाय तो वह उन्हें प्राप्त कर

लेता है । पुत्र! तुम ऐसा जानकर भगवान्‌ नारायणका

यह ब्रत करो । (व्रतका रूप यह है--) कभी भी

गणान्न--ब्राह्मणसंघके लिये निर्मित * अन नहीं

खाना चाहिये और झूठ भी नहीं बोलना चाहिये ।

व्याध) मैंने तुमसे जो इस उत्तम व्रतकी बात

बतायी है, यह बिलकुल सत्य है। अब तुम

तपस्वौ बनकर जबतक इच्छा हो, यहाँ रहो ।

भगवान्‌ वराह कहते हैँ -- वसुंधरे!

आरुणिको यह निश्चय हो गया कि यह व्याध

मोक्ष पानेके लिये अत्यन्त चिन्तित है । अतः उन

वरदाता ब्राह्मणने उसे इच्छित वर दे दिया। फिर

एक दिन वे बहाँसे उठकर सहसा कहीं चले गये।

[अध्याय ३७]

१. यहाँ सृलर्मे-' गणान ' शब्द है। मन्‌ ४।१०९ तथा ११९ में भो यह शब्द आया है । वहाँ सभी व्याख्यात्ा इसका प्राय:

*शतब्राह्मणसंघालम्‌'--यही अर्थ करते है । मोधियर विलियमके संस्कृत-अँग्रेजी-कॉशमें यही भाव और अधिक स्पष्ट है।

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