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रहे अथर्ववेद संहिता भाग-९

हे स्तोताओ ! आप सब अर्यमा, बृहस्पति, इन्द्र, वायु, विष्णु, सरस्वती, अन्न तथा बलप्रदायक सवितादेव का

आवाहन करें । सभी देव हमें ऐश्वर्य प्रदान करने के लिए पधार ॥७ ॥

५०९. वाजस्य नु प्रसवे सं बभूविमेमा च विश्वा भुवनान्यन्तः ।

उतादित्सन्तं दापयतु प्रजानन्‌ रविं च नः सर्ववीरं नि यच्छ ॥८ ॥

अन्नं की उत्पत्ति के कारणभूत कर्म को हम शोत्र ही प्राप्त करें । वृष्टि के द्वारा अन्न पैदा करने वाले "वाज

प्रसव देवता' के मध्य में ये समस्त दृश्य-जीव निवास करते हैं । ये कृपण व्यक्ति को दान देने के लिए प्रेरित करें

तथा हमें वीर पुत्रों से युक्त महान्‌ ऐश्वर्य प्रदान करें ॥८ ॥

५१०. दुहां मे पञ्च प्रदिशो दुह्लामुर्वीर्यथाबलम्‌ । प्रापेयं सर्वा आकूतीर्मनसा हदयेन च ।

यह उवीं (विस्तृत पृथ्वी ) तथा पाँचों महा दिशाएँ हमें इच्छित फल प्रदान करें । इनके अनुग्रह से हम अपने

मन ओर अन्तःकरण के समस्त संकल्पो को पूर्णं कर सकें ॥९ ॥

५११. गोसनिं वाचमुदेयं वर्चसा माभ्युदिहि ।

आ रुन्धां सर्वतो वायुस्त्वष्टा पोषं दधातु मे ॥१० ॥

गौ आदि समस्त प्रकार के ऐश्वर्यों को प्रदान करने वाली वाणी को हम उच्चस्ति करते है । हे वाग्देवता !

आप अपने तेज के द्वारा हमें प्रकाशित करें, वायुदेव सभी ओर से आकर हमें आवृत करें तथा त्वष्टा देव हमारे

शरीर को पुष्ट करें ॥९० ॥

[ २९- शान्ति सूक्त ]

[ऋषि - वसिष्ठ । देवता - अग्नि । छन्द - भुरिक्‌ ब्िषटप, १ पुरोऽनृषटप, ४ बरष्टप, ५ जगती, ६ उपरिष्टात्‌

विराट्‌ वृहती, ७ विरादगर्भाविष्ठप ९ तिवत्‌ अनुष, १० अनष्ट । ]

५१२. ये अग्नयो अप्स्वन्तर्ये वृत्र ये पुरुषे ये अश्मसु ।

य आविवेशौषधीर्यो वनस्पतीस्तेभ्यो अग्निभ्यो हुतमस्त्वेतत्‌ ॥१ ॥

जो अग्नियाँ पेघों, मनुष्यो, मणिवो (सूर्यकान्त आदि), ओषधियों, वृक्ष-वनस्पतियों तथा जल में विद्यमान हैं,

उन सप्रस्त अग्नियों को यह हवि प्राप्त हो ॥१ ॥

५१३. यः सोमे अन्त्यो गोष्वन्तर्य आविष्टो वयःसु यो मृगेषु ।

य आविवेश द्विपदो यश्चतुष्यदस्तेभ्यो अग्निभ्यो हुतमस्त्वेतत्‌ ॥२ ॥

जो अग्नियाँ सोमलताओं, गौ ओं, पक्षियों, हरिणो, दो पैर वाले मनुष्यो तथा चार पैर वाले पशुओं के अन्दर

विद्यमान है, उन समस्त अग्नियों के लिए यह हवि प्राप्त हो ॥२ ॥

५१४. य इन्द्रेण सरथं याति देवो वैश्वानर उत विश्वदाव्यः ।

ये जोहवीपि पृतनासु सासहिं तेभ्यो अग्निभ्यो हुतमस्त्वेतत्‌ ॥३ ॥

जो अग्निदेव इन्द्र के साथ एक रथ पर आरूढ़ होकर गमन करते हैं; जो सबको जलाने वाले दावाग्नि रूप

हैं; जो सबके हितकारी हैं तथा युद्ध में विजय प्रदान करने वाले हैं; उन अग्निदेव को ये आहुतियाँ प्राप्त हों ॥३ ॥

५१५. यो देवो विश्वाद्‌ यमु काममाहुरय॑ दातारं प्रतिगृहणन्तमाहुः ।

यो धीरः शक्रः परिभुरदाभ्यस्तेथ्यो अग्निभ्यो हुतमस्त्वेतत्‌ ॥ह ॥

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