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७८ संक्षिप्त जारदपुराण

भी बन्धुजनोके साथ मौन होकर भोजन करे । फिर | तथा सब पापोंसे मुक्त हो अपनी इक्कीस पीढ़ियोंके

सायंकालतक विद्वानोके साथ बैठकर भगवान्‌ | साथ भगवान्‌ विष्णुके धाममें जाता है, जहाँ

विष्णुकी कथा सुने। नारदजी ! जो मनुष्य इस | जाकर कोई शोकका सामना नहीं करता । ब्रह्मन्‌ ।

प्रकार द्वादशौ -त्रत करता है, वह इहलोक और | जो इस उत्तम द्वादशी -व्रतको पढ़ता अथवा सुनता

परलोकमे सम्पूर्ण कामनाओंको प्राप्त कर लेता है | है, बह मनुष्य वाजपेय यज्ञका फल पाता है ।

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मार्गशीर्ष-पूर्णिमासे आरम्भ होनेवाले लक्ष्मीनारायण-व्रतकी उद्यापनसहित

विधि और महिमा

श्रीसनकजी कहते हैं--मुनिश्रेष्ठ! अब मैं दूसरे

उत्तम क्रतका वर्णन करता हूँ सुनिये। वह सब पापोंक्ो

दूर करनेवाला, पुण्यजनक तथा सम्पूर्ण दुःखोंका

नाशक है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, श्र तथा स्त्री--इन

सबकी समस्त मनोबाड्छित कामनाओंको सफल

करनेवाला तथा सम्पूर्ण ब्रतोंका फल देनेवाला है। उस

व्रतसे बुरे-बुरे स्वप्नोंका नाश हो जाता है। वह

धर्मानुकूल त्रत दुष्ट ग्रहोंकी बाधाका निवारण

करनेवाला है, उसका नाम है पूर्णिमात्रत। वह परम

उत्तम तथा सम्पूर्ण जगतमें विख्यात है। उसके

पालनसे पापोंकी करोड़ों राशियाँ नष्ट हो जाती हैं।

मार्गशीर्ष मासके शुक्लपक्षको पूर्णिमा तिधथिको

संयम-नियमपूर्वक पवित्र हो शास्त्रीय आचारके

अनुसार दन्तधावनपूर्वकं स्नान करे; फिर श्वत वस्त्र | पुष्प आदि उपचारोंद्वारा भक्ति-तत्पर हो भगवान्‌कौ

धारण करके शुद्ध हो मौनपूर्वक घर आवे। वहाँ | अर्चना करे ओर एकाग्रचित्त हो वह गीत, वाद्य, नृत्य,

हाथ-पैर धोकर आचमन करके भगवान्‌ नारायणका | पुणण-पाठ तथा स्तोत्र आदिके द्वार श्रीहरिकी आराधना

स्मरण करे और संध्या-वन्दन, देवपूजा आदि | करे । भगवान्‌के सामने चौकोर वेदौ बनावे, जिसकी

नित्यकर्म करके संकल्पपूर्वक भक्तिभावसे भगवान्‌ | लंबाई - चौदह लगभग एक हाथ हो। उसपर गृह्य

लक्ष्मीनारायणको पूजा करे। ब्रती पुरुष “नमो | सूत्रम बतायी हुई पद्धतिके अनुसार अगप्निकौ स्थापना

नारायणाय '--इस म्रसे आवाहन, आसन तथा गन्ध. | करे और उसमें आज्यभागान्त! होम करके पुरुषसूक्तके

१. अप्रिस्थापनाके पश्चात्‌ दावे हाथमें सुव लेकर दाहिना घुटना भूमिपर रखकर ब्रह्मासे अन्वारम्भ करके घृतकी जो

चार आहतियाँ दो जाती हैं, उनमेंसे दो आहुतियोंका * आघार' संज्ञा है और शेष दो आहुतिर्योको ' आज्यभाग" कहते हैं। ' प्रजाफतये

स्वाहा '--इस मन्तरसे प्रजापतिके लिये जो घृतकी अविच्छिन्न धार दी जाती है, यह “पूर्व आधार' है। यह अग्निके उत्तरभागपें

प्रज्वलित अग्नियें हो छोड़ो जातौ है। इसो प्रकार अपग्निके दक्षिणभागमे 'इद्धाय स्वाह्य '--इस मन्त्रे प्रज्वलित अप्रिमें इन्द्रके

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