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= श्रीविच्णुपुराण [ अ» ९७

श्रीपराार उवाच श्रीपराशस्जीने कहा--तब तो उन सैकड़ों

ततस्तैरङातशो दैत्यैः शस्त्नोधैराहतोऽपि सन्‌ । दैत्योके इख -समहक् आघात होनेपर भी उनको

नावाप वेदनामल्पामभृश्चैव पुनर्नवः ॥ ३४

हिरज्यकरिपुस्वाच

दुर्बुद्धे विनिवर्तस्व वैरिपश्चस्तवादतः ।

अभयं ते प्रयच्छामि मातिमूढमतिर्भव ॥ ३५

जह्लाद उकाच

भयानि सर्वाण्यपयान्ति सर्वाण्यपयान्ति तात ॥ ३६

हिरण्यकश्निपुरुचाच

भो भो सर्पाः दुराचारमेनमत्यन्तदुर्मतिम्‌।

विषज्वालाकुलैर्वक्त्रै: सद्यो नयत सद्भुयमं ॥ ३७

श्ीपरङार उवाच

इत्युक्तास्ते ततः सर्पाः कुहकास्तक्षकादयः ।

अदश्चन्त॒ समस्तेषु गात्रेषुतिविषोल्वणाः ॥ ३८

स त्वासक्तमतिः कृष्ण दङ्यमानो महोरगैः ।

न विवेदात्मनो गात्रे तत्स्मृत्याहादसुस्थितः ॥ ३९

सर्पाऊचुः

दंष्टा विशीर्णा मणयः स्फुटन्ति

फणेषु तापो हृदयेषु कम्पः ।

नास्य त्वचः स्वल्पमपीह भिन्न

प्रशाधि दैत्येश्वर कार्यमन्यत्‌ ॥ ४०

हिएण्यकासिपुरुणाच

है दिगाजा: सद्भुटदन्तमिश्रा

प्रतैनमस्मद्रिपुपक्षभिन्नमू.।

तज्जा बिनाशाय भवन्ति तस्य

यथाऽरणेः प्रज्वलितो हुताशः ॥ ४१

श्रीपराशर उवाच

ततः स दिगणाजैर्बालो भूभृच्छिखरसन्निभैः ।

पातितो धरणीपृष्ठे विषाणैर्वावपीडितः ॥ ४२

स्मरतस्तस्य गोविन्दमिभदन्ताः सहस्रदाः ।

जीर्णा वक्षःस्थलं प्राप्य स प्राह पितरं ततः ॥ ४३

तनिक-सी भी वेदना न हुई, बे फिर भी ज्यों-के-ल्यों नवीन

| बल-सम्पन्न ही रहे ॥ ३४ ॥

हिरण्यकक्षिपु बोक़ा--टरे दुर्बुद्धे! अब तू

विपश्ीकौ स्तुति करना छोड़ दे; जा, मैं तुझे अभय-दान

देता हूँ, अब और अधिक नादान मत हो ॥ ३५॥

प्रह्मादजी बोले--हे तात ! जिनके स्मरणमात्रसे

जन्म, जरा और मृत्यु आदिके समस्त भय दूर हो जाते हैं,

उन सकल-भयहारी अनन्तके हदय स्थित रहते मुझे भय

कहाँ रह सकता है॥ ३६ ॥

हिरण्यकशियु वोत्म-- अरे रूपो ! इस अत्यन्त

दुर्बद्धि ओर दुराचारीको अपने तिषाप्रि-सन्तप्त मुखोंसे

क्त्रटकर इीप्र हो नष्ट कर दो ॥ ३७ ॥

श्रीपरा्जरजी बोले--ऐसी आज्ञा होनेपर अतिक्रूर

और विषधर तक्षक आदि सपमि उनके समस्त अगोंमें

काटा ॥ ३८ ॥ किन्तु उन्हें तो श्रीकृष्णचन्द्रमें आसक्त-

चित्त रहनेके कारण भगवत्स्मरणके परमानन्दे डूबे रहनेसे

उन महासपोके काटनेपर भी अपने दारोरकी कोई सुचि

नहीं हुई ॥ ३९॥

सर्प खोले--डे दैत्यराज ! देखो, हमारी दके

टूट गयीं, मणियाँ चरखने लगीं, फणो्में पीड़ा होने खगी

और हृदय कँपने लगा, तथापि इसको त्वचा तो जरा

भी नहीं कटी । इसलिये अब आप हमें कोई और कार्य

बताइये ॥ ४० ॥

हिरण्यकदिपु खोलला--हे दिगजो ! तुम सब

अपने संकीर्ण दाँतोंकों मिलाकर मेरे दात्रु-पक्षद्वारा

[ बहकाकर ] मुझसे विमुख किये हुए इस बाल्कको

मार गाल । देखो, जैसे अरणीसे उत्पन्न हुआ अप्रि उसीको

जला डालता है उसी प्रकार कोई-कोई जिससे उत्पन्न होते

है ठसीके नादा करनेवाले हो जाते हैं ॥ ४१ ॥

श्रीपराह्रजी बोले--तब पर्वत-शिखरके समान

विशालकाय दिग्गजोनि उस वालकको पृथिवीपर पटककर

अपने दाँतोंसे खूब रौंदा ॥४२ ॥ किन्तु श्रीगोविन्दका

स्मरण करते रहनेसे हाथियोंकि हजारों दाँत उनके

यक्षःस्थलसे टकराकर टूट गये; तब उन्होंने पिता

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