७८.
ऋषीणां देवतानां च नायकत्वं प्रकाशितम्।
यतस्ततः सुरैरग्रे पूज्यसे त्वं भवात्यज ॥ १४
त्वामाराध्य गणाध्यक्षं सर्वज्ञं कामरूपिणम्।
कार्यार्थं रक्तकुसुमै रक्तचन्दनवारिभिः॥ १५
रक्ताम्बरथरो भूत्वा चतुर्ध्यापर्चयेजपेत्।
त्रिकालमेककालं वा पूजयेत्नियताशनः॥ १६
राजानं राजपुत्रं वा राजमन्त्रिणपेव वा।
राज्यं च सर्वविध्रेश वशं कुर्यात् सराष्ट्रकम्॥ ९७
अविध्नं तपसो पद्यं कुरु नौमि विनायक ।
मयेत्थं संस्तुतो भक्त्या पूजितश्च विशेषतः ॥ १८
३ सर्वतीर्थेपु सर्वजे ।
तत्फलं पूर्णमाष्नोति स्तुत्वा देव॑ं विनायकम्॥ १९
विषमं न भवेत् तस्य न च गच्छेत् पराभवम्।
न च विष्नो भवेत् तस्य जातो जातिस्मरो भवेत्॥ २०
य इदं पठते स्तोत्रं षड्भिर्मायैर्वरं लभेत्।
संवत्सरेण सिद्धिं च लभते नात्र संशयः ॥ २९
सूत्र रकन
एवं स्तुत्वा पुरा राजा मणाध्यश्च द्विजोत्तम ।
तापसं वेषमास्थाय तपश्चर्तुं गतो वनम्॥ २२
उत्सृज्य वक्त्रं नागत्वक्सदशं बहुमूल्यकम्।
कठितां तु त्वचं वाक्षी कटयां धत्त नृपोत्तमः ॥ २३
तथा रत्नानि दिव्यानि वलयानि निरस्य तु।
अक्षसूत्रमलंकारं फलैः प्श्रस्य शोभनम्॥ २४
तथोत्तमाद्धे मुकुटं रन्रहाटकशोभितम्।
त्यक्त्वा जटाकलापं तु तपोऽर्धे बिभूयात्रूप: ॥ २५
कृत्वेत्थं स तपोवेषं वसिष्ठोक्ते तपोवनम्।
प्रविश्य च तपस्तेपे शाकमूलफलाशनः ॥ २६
य~~ त १...
[ अध्याय २५
शिबपुत्र! आपने ऋषि और देवताओंपर अपना स्वामित्व
प्रकट कर दिया है, इसीसे देकाण आपको प्रथम पूजा
करते हैं। सर्वविष्लेश्वर! यदि मनुष्य रक्तवस्त्र धारणकर
नियमित आहार करके अपने कार्यकी सिद्धिके लिये लाल
पुष्पो ओर रक्तचन्दन-युक्त अलसे चतुर्थीके दिन तोनों
काल या एक कालमें आप कामरूपी सर्वज्ञे गणपतिका
पूजने करे तथा आपका नाम जपै तो यह पुरुष राजा,
राजकुमार, राजमव्तरोको राज्य अथवा समस्त राष्ट्रसहित
अपने वशम कर सकता है॥१३--१७॥
विनायक! मैं आपको स्तुति करता हूँ। आप मेरें
दवारा भक्तिपूर्वक स्तवनं एवं विशेषरूपसे पूजन किये
जानेपर मेरी तपस्याके विध्नकों दूर कर दें। सम्पूर्ण तौ्थों
और समस्त यज्ञॉमें जो फल प्राप्त होता है, उसी फलको
मनुष्य भगवान् पिनायकका स्तवत् करके पूर्णरूपसे प्राप्त
कर लेता है। उसपर कभी संकट नहीं आता, उसका
कभी तिरस्कार नहों होता और न उसके कार्यमें विश्व ही
पडता है; वह जन्म लेनेके बाद पूर्वजन्मकौ बातोंको
स्मरण करनेवाला होता है। जो प्रतिदिन इस स्तोत्रका
पाठ करता है, वह छः महीनॉतक निरन्तर पाठ करनेसे
गणेशजीसे मनोबाज्छिति वर प्राप्त करता है और एक
वर्षमे पूर्णतः सिद्धि प्राप्त कर लेता है--इसमें तनिक भी
संशय नहो हं ॥ १८--२१॥
सूतजी योले ~ द्विजोत्तमगण ) इस प्रकार राजा
इक्ष्वाकु पहले गणेशजीका स्तत् करके, फिर तपस्वीका
येय धारणकर तप करनेके लिये वनमें चले गये। सौपकी
त्वचाके समान मुलायम एवं बहुमूल्य वस्त्र त्यागकर ये
श्रेष्ठ महाराज कमरमें दृक्षोंकों कठोर छाल पहनने लगे।
दिव्य रत्नोंके हार और कड़े निकालकर हाथमें अक्षसूत्र
तथा गलेमें कमलगट्टॉको वनौ हुईं सुन्दर माला धारण
करने लगे। इसी प्रकार वे नरेश मस्तकपरसे रतन तथा
सुवर्णसे सुशोभित मुकुट हटाकर यहाँ तपस्याके लिये
जटाजूट रखने ल ॥ २२--२५॥
इस प्रकार वसिष्ठजोके कथतानुसार तापस-बेष
धारणकर तपोकनमें प्रविष्ट हो, वै शाक और फल-
भूलका आहार करते हुए तपसस्यामें प्रवृत्त हो गये।