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७८.

| संशि ख्रह्मपुराण *

तथा पार्वतीदेवीसे अपने पतिके लिये याचना की।

उसके दुःखको जानकर दयालु दम्पतिने उसे

सान्त्वना देते हुए कहा-' कल्याणी । कामदेव तो

अब निश्चय हौ दग्धं हो गया, अब यहाँ इसकी

उत्पत्ति नहीं हो सकती; परंतु शरीररहित होते हुए

भी यह तुम्हारे सब कार्य सिद्ध करता रहेगा।

शुभे! जब भगवान्‌ विष्णु वसुदेवनन्दन श्रोकृष्णके

रूपमें इस पृथ्वीपर अवतार लेंगे, उस समय

उन्हीकि पुश्ररूपमें तुम्हारे पतिका जन्म होगा। इस

प्रकार खरदाने पाकर कामपत्नी रति खेदरहित एवं

प्रसन्न हों अपने अभीष्ट स्थानको चली गयी । इधर

भगवान्‌ शङ्कर कामदेवको दग्ध करनेके पश्चात्‌

भगवती उपाके साथ हिमालयपर प्रसन्नतापूर्वक

रमण करने लगे।

पार्वतीजीने कहा - भगवन्‌! देवदेवेश्वर! अब

मैं इस पर्वतपर नहीं रहूँगो। अब मेरे लिये दूसरा

कोई

भहादेवजी बोले--देवि! मैं तो सदा तुमसे

अन्यत्र रहनेको कहता था, किंतु तुम्हें कभी अन्य

किसी स्थानका निवास पसन्द नहीं आया। आज

स्वयं ही तुम अन्यत्र रहनेकी इच्छा क्यों करती

हो? इसका कारण बताओ।

देवीने कहा--देवेश्वर! आज मैं अपने महात्मा

पिताके घर गयी थी। वहाँ माताने मुझे एकान्त

स्थानमें देख उत्तम आसन आदिके द्वारा मेरा

सत्कार किया और कहा--'उमे! तुम्हारे स्वामी

दरिद्र हैं, इसलिये सदा खिलौनोंसे खेला करते हैं।

देवताओंकी क्रीड़ा ऐसी नहीं होती।' महादेव!

आप जो नाता प्रकारके गणोंके साथ विहार करते

हैं, यह मेरी माताको पसन्द नहीं है।

यह सुनकर महादेवजी हँस पड़े और देवीको

हँसाते हुए बोले--प्रिये! बात तो ऐसी हौ है,

इसके लिये तुम्हें दुःख क्‍यों हुआ? मैं कभी

हाथीके चमड़े लपेटता, कभी दिगम्बर बना रहता,

प | श्मशानभूमिमें निवास करता, बिना घर-द्वारका

होकर जंगलोंमें और पर्वतकी कन्दराओंमें रहता

तथा अपने गणोंके साथ घूमता-फिरता हूँ। इसके

4 | लिये तुम्हें मातापर क्रोध नहीं करना चाहिये।

तुम्हारी माताने सब ठीक ही कहा है। इस

| पृथ्वीपर प्राणियोंका माताके समान हितकारी कोई

बन्धु-बान्धव नहीं है।'

देवीने कहा--सुरेश्व! मुझे अपने बन्धु-

| | वा्धवोसे कोई प्रयोजन नही है। आप वहा करें,

4 | जिससे मुझे सुख हो।

देवीका यह वचन सुनकर देवेश्वर महादेवजीने

उन्हें प्रसन्न करनेके लिये उस पर्वतकों छोड़ दिया

और पत्नी तथा पार्षदोंकों साथ ले देवताओं और

| सिद्धौसे सेवित सुमेरुपर्वतके लिये प्रस्थान किया।

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