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+ अर्चयस्व इषीकेदौ यदीच्छसि परं पदम्‌ +

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[ संक्षिप्त पद्मपुराण

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एक ही अन्नका भोजन और वर्ष समाप्र होनेपर कमलका

दान करता है, वह वैश्वानरल्रेकमे जाता है। इसे

'अम्रित्रत' कहते हैं। जो प्रत्येक दशामीको एक ही

अन्नका भोजन और वर्ष समाप्त होनेपर दस गौएँ तथा

सोनेका दीप दान करता है, वह ब्रह्माष्डका स्वामी होता

है। इसका नाम 'किश्वव्रत' है। यह बड़े-बड़े पातकोंका

नाश करनेवाला है। जो स्वये कन्यादान करता तथा

दूसरेकी कन्याओंका विवाह करा देता है, वह अपनी

इकीस पीढ़ियॉसहित ब्रह्मलोकमें जाता है। कन्या-दानसे

बढ़कर दूसरा कोई दान नहीं है । विशेषतः पुष्करमें और

वहाँ भी कार्तिकी पूर्णिमाक्मे, जो कन्या-दान करेंगे,

उनका स्वर्गमें अक्षय वास होगा । जो मनुष्य जले खड़े

होकर तिलकी पीठीके बने हुए हाथीको रलोसे विभूषित

करके ब्राह्मणको दान देते हैं, उन्हें इन्द्रस्म्रेककी प्राप्ति

होती है। जो भक्तिपूर्वक इन उत्तम त्रतोंक़ा वर्णन पढ़ता

और सुनता है, वह सौ मन्वन्तरोंतक गन्धर्वोका स्वामी

होता है ।

ख्रानके बिना न तो शारीर ही निर्मल होता है और

न मनकी ही शुद्धि होती है, अतः मनकी झुद्धिके लिये

सबसे पहले स््रानका विधान है। घरमे रखे हुए अथवा

तुरंतके निकाले हुए जलसे स्त्रान करना चाहिये। [किसी

जलाशय या नदीका स्त्रान सुलभ हो तो और उत्तम है।]

मन्जवेत्ता विद्वान्‌ पुरुकको मूलमन्त्रके द्वारा तीर्थकी

कल्पना कर लेनी चाहिये। "ॐ नमो नारायणाय'--

यह मूलमन्त्र बताया गया है। पहले हाथमे कुश लेकर

विधिपूर्वक आचमन करे तथा मन और इन्दरिर्योके

संयममे रखते हुए बाहर-भीतरसे पवित्र रहे । फिर चार

हाथका चौकोर मण्डल बनाकर उसमें निम्नाड्धित

वाक्योंद्वार भगवती गङ्गाका आवाहन करे-- गङ्गे ! तुम

भगवान्‌ श्रीविष्णुके चरणोंसे प्रकट हुई हो; श्रीविष्णु ही

विष्णुपादप्रसूतासि चैष्णवो विष्णुदेवता । पाहि

तुम्हारे देवता हैं, इसीलिये तुम्हे वैष्णवी कहते है । देवि !

तुम जन्यसे छेकर मृत्युतक समस्त पापोंसे मेरी रक्षा

करो ! स्वर्ग, पृथ्वी और अन्तरिक्षम कुल साढ़े तीन

करोड़ तीर्थ हैं, यह वायु देवताका कथन है। माता

जाहवी | वे सभी तीर्थ तुम्हारे भीतर मौजूद हैं।

देवल्लेकमें तुम्हात नाम नन्दिनी और नलिनी है। इनके

सिवा दक्षा, पृथ्वी, सुभगा, विश्वकाया, शिवा, अमृता,

शान्ता और शान्तिप्रदायिनी आदि तुम्हारे अनेकों नाम

है ।'*# जहाँ स्नानके समय इन पवित्र नामोंका कीर्तन

होता है, वहाँ त्रिपथगामिनी भगवती गङ्गा उपस्थित हो

जाती हैं।

सात बार उपर्युक्त नार्मोका जप करके सम्पुटके

आकारमें दोनों हाथोंको जोड़कर उनमें जल ले। तीन,

चार, पाँच या सात बार मस्तकपर डाले; फिर विधिपूर्वक

मृत्तिकाको अभिमन्त्रित करके अपने अज्लोमें लगाये।

अभिमन्त्रित करनेका मन्त्र इस प्रकार है--

अश्वक्रान्ते रथक्रान्ते विष्णुकान्ते खसुनधरे ।

मृत्तिके हर मे पापं यन्मया दुष्कृतं कृतम्‌ ॥

उद्धृतासि वराहेण कृष्णेन झतबाहुना ।

नमस्ते सर्वस्कोकानों श्रभवारणि सुत्रते ॥

(२०। १५५. १५७)

"वसुन्धरे ! तुम्हारे कपर अश्च और रथ चत्त करते

है । भगवान्‌ श्रीविष्णुने भी वामनरूपसे तुम्हें एक चैरसे

नापा था। मृत्तिके ! मैंने जो बुरे कर्म किये हों, मेरे उन

सब पापोंको तुम हर त्तरे । देवि ! भगवान्‌ श्रीविष्णुने

सैकड़ों भुजाओंवाले वराहका रूप धारण करके तुम्हें

जरसे बाहर निकाला था। तुम सम्पूर्ण ल्मेकॉकी

उत्पत्तिके लिये अरणीके समान हो । सूत्रते ! तुम्हें मेरा

नमस्कार है।'

नस्त्वेनसस्तस्मादाजन्ममरणात्तिकात्‌

तिलः क्वेटयो3र्ड्धकोटी च तीर्घानौ वायुरक्रवीत्‌ | दिचि भूम्यत्तरिक्षे च तनि ते सत्ति जाहवि ॥

नन्दिनीत्येथ ते नाम देवेषु नलिनीति च। दक्षा पृथ्वी च सुभगा विश्वकाया रिवामृता ॥

विद्याधरी महददिवी तथा स्प्रेकप्रसादिनी । क्षेमा च जहती चैव दान्ता झाक्तिप्रदायिनी॥

(२०। १४९-- १५२)

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