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आखारकाण्ड ]

* संध्योपासन, तर्पण, देवाराधत आदि नित्य कर्मो तथा आशौचका निरूपण *

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फलौको प्रदान करनेमें समर्थं होता है।

रात्रिमें सुखपूर्वक सोये हुए व्यक्तिके मुखस निरन्तर

लार आदि अपवित्र मल गिरते रहते है । (अतः सम्पूर्ण

शरीर अपवित्र हो जाता है ।) इसलिये प्रथमतः स्नान करके

ही संध्या-वन्दनादिके धार्मिक कृत्य करने चाहिये (बिना

प्रातःकाल स्नान- कृत्व किये संध्या -वन्दनादि करना उचिते

नहीं है)।

प्रातःस्नानं करनेसे अलक्ष्मी, कालकर्णी अर्धात्‌

विघ्न डालनेकाली अनिष्टकारी शक्तियाँ, दुःस्वप्न एवं

दुर्विचारसे होनेवाले चिन्तनके पाप धुल जाते हैं, इसमें

संज्ञय नहीं । यह स्मरणीय है कि बिना स्नानके किये गये

कार्य प्रशस्त नही होते । अतएव होप और जपादिके कार्याँमें

विशेषरूपते सबसे पहले विधिवत्‌ स्नान करना चाहिये।

अशक होनेपर चिना सिरपर जल डाले ही स्नान

करनेका विधान है। आदरं वस्व्से भी शगीरको पोंछा जा

सकता है । इसको कायिक स्नान कहते है ।

ब्राह्म, आप्नेयं, बायव्य, दिष्य, वारुण ओर यौगिक--

ये छः प्रकारके स्नान हैं, यथाधिकार मनुष्यकों स्नान करना

चाहिये । मन्त्रोंसहित कुशके द्वारा जल-विन्दुओंसे मार्जन

करना ब्राह्म -स्नान ई । सिरसे लेकर पैरतक यथाविधान

भस्मके द्वारा अङ्गका लेपन आग्नेय -स्नान है । गोधूलिसे

शरीरको पवित्र करना वायव्य-स्नान कहा गया है। यह

उत्तम स्नान माना जाता है। धूपके साथ होनेवाली वृष्टे

किये गये स्नातको दिव्य-स्तात कहते हैं। जलमें अवगाहन

करना वारुण-स्नान है । योगद्वारा हरिका चिन्तन यौगिक

स्नान है। इसीको सानस-आत्मवेदन (ब्रह्माकार अखण्ड

चित्तवृत्ति) कहते हैँ । यह यौगिक स्नान ब्रह्मवादियोंके द्वारा

सेविते है, इसे हौ आत्मतीर्थ भी कहते है ।

(स्नानके पुर्व) दुग्धधारी युक्षोसे उत्पन्न काष्ट, मालती,

अपामार्ग, निल्व अथवा करवीर अर्थात्‌ कनेरकौ दातौत

लेकर उत्तर या पूर्व दिशाकौ ओर पवित्र स्थाने बैठकर

दाँतोंको स्वच्छ करना चाहिये और उसे धोकर उसका

पवित्रे स्थानमें त्याग करना चाहिये।

तदनन्तर स्नान करके देवताओं, ऋषियों और पितृगणोंका

विधिवत्‌ तर्पण करना चाहिये। यहाँ यथाशास्त्र स्तानका

अङ्गभूते आचमन एवं संध्योपासनके अङ्गभूत आचपनका

विधान है । संध्योपासनके अद्गभरूपमें हौ कुशोदक विन्दुओंसे

"आपो हि घ्वा० ' आदि वारुणमन्त्र एवं यथाविधान सावि्रीमन्त्रके

द्वारा मार्जन करना विदित है। इसी क्रममें अध्कार और ' भूः

भुवः स्वः ' इन व्याइतियोंसे युक्त वेदमाता गायत्रीका जप

करके अनन्यभावसे भगवान्‌ सूर्यके प्रति जलाञ्जलि समर्पित

करे (सूर्या्ध्य प्रदाने करे) ।

इसी क्रमे पृवंकी ओर अग्रभागवाले कुशोंके आसनपर

समाहितचित्तसे बैठकर प्राणायाम करके संध्या-ध्यान करनेका

ब्रुतिमें विधान है। यह जो संध्या है, यही जगत॒की सृष्टि

करनेयाली है, मायासे परे है, निष्कला, ऐश्वरी, केवला

शक्ति तथा तीन तत्त्योंसे समुद्भधृत है । अत: अधिकारी व्यक्ति

(प्रातःकाल) रक्तवर्ण, (मध्याहकाल) शुक्लवर्ण एवं

(सायंकाल) कृष्णवर्णं गायत्रीका ध्यात करके गायत्रीमनत्रका

जप करे।

द्विजको सदैव पूर्वाभिमुख होकर संध्योपासन करना

चाहिये । संध्या-कृत्यमे रहित ब्राह्मण सदा अपवित्र रहता

है, वह सभी कार्योके लिये अयोग्य होता है। वह जो भी

अन्य कोई कार्य करता है, उसका कुछ भी फल उसे प्राप्त

नहीं होता। अनन्यचित्त होकर वेदपारङ्गत ब्राह्मणोनि विधिवत्‌

संध्योपासन करके अपने पूर्वजोकि द्वारा प्राप्त उत्तम गतिको

प्राप्त किया है । संध्योपासतका त्यागकर जो द्विजोत्तम अन्य

किसी धर्प-कार्यके लिये प्रयत्न करता है, उसे दस हजार

वर्षोतक नरक भोग करना पड़ता है। अत: सभी प्रकारका

प्रयत्न करके संध्योपासन अवश्य करना चाहिये'।

उस संध्योपासनकर्मसे योगमूर्ति परमात्मा भगवान्‌

नारायण पूजित हो जाते हैं। अत: अधिकारीकौ चाहिये कि

वह पवित्र होकर पूर्वाभिमुख वैट करके नित्य संयत-

भावसे एक सहस्र या एक सौ अधवा दस बार गायत्रीका

१-ग्राङ्मुखः सततं विप्रः संध्योपासनमाचरेत्‌। संध्याहोनोउशुचिर्तित्वपनई : सर्वकर्मसु॥

यदन्यत्कुरते किञ्चित्न तस्य फलभाग्भवेत्‌ । अवन्यवैतरू: सरो श्राष्राणा वैदपारगां:॥

उच्य्य विषिवास॑ध्यां प्राप्ता: पूर्वपरौ गतिम्‌ । योऽन्यत्र कुरौ चं धर्मकायें ट्रिजोलम:॥

विहाय संध्याप्रणतिं ज्ञ याति नरकायुतम्‌ । तस्मन्‌ सर्वप्रयत्रेत संध्योफासनमाचरेत्‌ ॥

उपासितो भवेत्तेन देवो योगतनु: प्रः । (५०। २१- २५)

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