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पूरा ऐज्रपर्वणि चतरयोऽभ्यायः ४९

युद्ध प्रारम्भ होने पर शत्रुजयी ही धन प्राप्त करते हैं । हे इद्धदेव ! युद्धारम्भ पर मद टपकाने वाले (उमंग

में आने वाले) अश्वों को आप अपने रथ में जोड़ें । आप किसका वध करें, किसे धन दें- यह आपके ऊपर निर्भर

है । अतः हे इन्द्रदेव ! हमें ऐश्वर्यों से युक्त करें ॥६ ॥

४१५. अक्षननमीमदन्त हयव प्रिया अधूषत ।

अस्तोषत स्वभानवो विप्रा नविष्ठया मती योजा न्विद््र ते हरी ।॥७॥

हे इद्धदेव! आपके अन से तृप्त हुए यजपानों ने अपने आनन्द को व्यक्त करते हुए सिर हिलाया ।

फिर उन तेजस्वी ब्राह्मणों ने नूतन स्तोत्र का पाठ फिया । अब आप अपने अश्वो को यज्ञ मे प्रस्थान के लिए

योजित करें ॥७ ॥

४१६. उपो षु शृणुही गिरो मघवन्मातथा इव ।

कदा नः सूनतावतः कर इदर्थयास इद्योजान्विददर ते हरी ॥८ ॥

हे धनवान्‌ इन्द्रदेव ! आप हमारे स्तोत्रों को निकट से भलीप्रकार सुनें । आप हमें सत्यभाषी कब बनायेंगे ?

हमारी स्तुतियो को प्रहण करने वाले आप, अश्वो को आगमन के निमित्त योजित करें ॥८ ॥

४९७. चन्द्रमा अप्प्वांऽरेन्तरा सुपर्णो धावते दिवि ।

न वो हिरण्यनेमयः पदं विन्दन्ति विद्युतो वित्त मे अस्य रोदसी ॥९ ॥

अन्तरिक्षवासी चन्द्रमा अपनी श्रेष्ठ किरणों सहित आकाश में गतिशील है । हे विद्युत्रूप स्वर्णमयी सूर्य

की रश्मियो आपके चरणरूपी अग्रभाग को हमारी इन्द्रियाँ पकड़ने में समर्थ नहीं हैं । हे द्यावा-पृथिवि ! मेरी

स्तुतियों को स्वीकार करें । रात्रि में सूर्य का प्रकाश आकाश में संचरित रहता है; किन्तु हमारी इन्द्रियाँ उसे अनुभव

नहीं कर पाती । चन्द्रमा के माध्यम से ही प्रकाश मिलता है ॥९ ॥

४१८, प्रति प्रियतमं रथं वृषणं वसुवाहनम्‌।

स्तोता त्रामश्विनावृषि स्तोमेभिर्भूषति प्रति माध्वी मम श्रुतं हवम्‌ ॥१० ॥

हे अग्विनीकुमारो ! आपके अत्यन्त प्रिय, बलयुक्त, धन वाहक रथ को स्तोता ऋषि अपने स्तोत्र से विभूषित

करते हैं । हे मधुर विद्या के ज्ञाताओ ! आप मेरी स्तुतियों का श्रवण करें ॥१० ॥

॥इति एकत्रिंशः खण्डः ॥

कै कै ष

॥ द्वात्रिंशः खण्डः ॥

४१९. आ ते अग्न इधीपहि द्युमन्तं देवाजरम्‌ ।

यद्ध स्या ते पनीयसी समिद्दीदयति द्वीषं स्तोतृभ्य आ भर ॥९॥

है अग्निदेव ¦ प्रकाशयुक्त एवं जरा-रहित!नित्य युवा) आपको हम प्रज्वलित करते है । आपकी श्रेष्ठ ज्योति

चुलोक में प्रकाशित होती है । आप स्तोताओं को अन्न (पोषण) से परिपूर्ण कर दें ॥६ ॥

४२०. आग्नि न स्ववृक्तिभिरहोतारं त्वा वृणीमहे ।

शीरं पावकशोचिषं वि वो मदे यज्ञेषु स्तीर्णवर्हिषं विवक्षसे ॥२ ॥

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