देवासुर संग्राप वर्णन | [ ६३
करने वाले हुए थे । उह महायुद्ध में उद्च्रान्त वेगो वाले और प्रवृद्ध
उन दोनों के द्वारा वह पावेती माया देग्ध तथा भस्मीभूत होकर नष्ट
होकर नष्ट हो गई थी ।२६-३२। वह अनिल (वागु) अनल (पावक)से
सयुक्त ओर वह अग्निवाग्रुमे समाकूल होकर इन दोनों ने युग के
अन्त मे मूषित होने के समान दैत्यों की सेना का दहुन कर दिया था
।३३। वहाँ पर वायु प्रधावित हुआ था और पीछे से अग्नि वायु के
अनुसार ही धातमान हुआ था । इस तरह से अनिल और अनल दोनों
दानवों की सेना में क्रीड़ा करते हुए चरण करते थे ।र३४।
'भस्मावयवभूतेषु प्रपतत्सूत्पतत्सु च ।
दानवानां विमानेषु निपतत्सु समन्ततः ।३५
वातस्कन्धापविद्धषु कृतकम्मंणि पावके
. मया बधे निवृत्तं तु स्तूयमाने गदाधरे ।३६.
निष्प्रयत्नेषु देत्येषु त्रेलोक्ये मुक्तबन्धने ।
संगप्रहष्टेषु देवेषु साधु साध्विति सर्वेश: ।३७
जये दशणताक्षस्य दँत्यानाञ्च पराजये ।
दिक्षु सर्वासु प्रवृत्तं धम्मंविस्त>े ।३८
अपावृते चन्द्रमसि स्वस्थानस्ते दिवाकरे ।
प्रकृतिस्थेषु लोकेषु त्रिषु चारि त्रबन्धुषु ।३६
यजमानेषु भूतेषु प्रणान्तेषु च पाप्मसु ।
अभिन्नवन्धने मृत्यौ हूयमाने हुताशने ।४०
यज्ञणोभिषु देवेषु स्वगर्थि दशंयत्सु च ।
लोकपालेषु सर्वेषु दिक्षु संयानवतिषु । ४१
भावे तपसि सिद्धात्तामभावे पापकम्मेणाम् ।
देवपक्षे प्रमुदिते देत्यपश्षो विषीदति ।४२
चारों ओर-से दाक्वों के विमानो के नीचे गिर. जाने परः उनके
ऊपर उड़केर भूनिःपर्.िरने तथा भस्मीभृत जवयवों के होने - षर एवं