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काण्ड-१२ सुत्त ४ ३०

३४८९. य आर्षेयेभ्यो याचद्ध्यो देवानां गां न दित्सति ।

आ स देवेषु वृश्चते ब्राह्मणानां च मन्यवे ॥१२ ॥

जो लोग लोकहित को दृष्टिगत रखने वाले याचक ऋषिपुत्रो को देवो की गौ दानस्वरूप नहीं देते । उनके

ऊपर ब्राह्मणों के कोप और देवों के आघात बरसते हैं ॥१२ ॥

३४९०. यो अस्य स्याद्‌ वशाभोगो अन्यामिच्छेत तर्हि सः ।

हस्ते अदत्त पुरुषं याचितां च न दित्सति ॥१३ ॥

यदि कोई भोग सामग्री चाहता है, तो वह वशा (त्रह्म विद्या) से नहीं, किसी दूसरी विधि से प्राप्त करे; क्योकि

जो वशा याचना करने पर भी नहीं दी जाती, वह गौ ही उस मनुष्य (गोपति) के विनाश का कारण बनती है ॥१३ ॥

३४९१. यथा शेवधिर्निहितो ब्राह्मणानां तथा वशा ।

तामेतदच्छायन्ति यस्मिन्‌ कर्स्मिश्च जायते ॥ १४ ॥

जैसे किसी की सुरक्षित निधि होती है, वैसे ही यह वशा (गाय) ब्राह्मणों की है । कहीं किसी के भी गृह में

उत्पन्न होने पर उसके पास ब्राह्मण लोग याचक भाव से पहुँचते हैं ॥१४ ॥

३४९२. स्वमेतदच्छायन्ति यद वशां ब्राह्मणा अभि ।

यथैनानन्यस्मिन्‌ जिनीयादेवास्या निरोधनम्‌ ॥९५ ॥

यदि बाह्मण (ब्रह्मनिष्ठ) गौ के समीप आते है तो वे अपनी सम्पत्ति के पास ही आते है । इस गौ को रोकना

(न देना) मानो इन्हें (ब्राह्मणों को) दूसरे अर्थ मे व्यथित करना ही है ॥१५ ॥

३४९३. चरेदेवा बरैहायणादविज्ञातगदा सती । वशां च विद्यान्नारद ब्राह्मणास्तरहेष्याः ॥९६ ।

तीन कालों (वर्षों या जीवन के अंशो ) तक, जब तक वशा की पहचान न हो, तब तक उसे गोपति (इन्द्रियों

का स्वामी) विचरण करने दे । हे नारद ! वशा (प्रतिभा या विद्या) को पहचान लेने पर उसके लिए ब्राह्मण (ब्रह्मनिष्ठ

व्यक्ति अथवा अनुशासन) खोजकर उसे सौंप दिया जाए ॥१६ ॥

३४९४. य एनामवशामाह देवानां निहितं निधिम्‌ ।

उभौ तस्मै भवाशवौँ परिक्रम्येषुमस्यतः ९७ ॥

जो देवों की स्थायी निधि (सुरक्षित निधि) रूप वशा को अवशा (न देने योग्य) कहते हैं, तो भव ओर शर्व

ये दोनों देव उस पर पराक्रमी प्रहार स्वरूप बाण चलाते हैं ॥१७ ॥

[ भव उत्पन्नकर्त्ता और शर्वं विसर्जन कर्त देवो के नाप है । ये दोनों संबोधन लिवजी के लिए भी है । अदानी, नियम का

उल्लंघन करने वाले को शिव का चक्र चलाने वाले देव दण्डित करते है । ]

३४९५. यो अस्या ऊधो न वेदाथो अस्या स्तनानुत ।

उभयेनैवास्मै दुहे दातुं चेदशकद्‌ वशाम्‌ ॥१८ ॥

जो गोपालक उसके ऊध (थन्‌) और स्तनों को नही जानते, वे भी दानस्वरूप गौ को देने में सक्षम हुए, तो

वह वशा (गाय) उन्हें पुण्यफल के साथ पर्याप्त दूध का अभीष्ट फल देती है ॥१८ ॥

[ काण्ड १० के १०.७ मत्र पे वशा के ऊय और स्तन पर्जन्य तथा विद्युत्‌ कहे गये है । जो यह रहस्य नही जानते तथा

उत्पादक द्रव्यो कौ आहुतियाँ ब्रह्मकर्म-यज्ञ में देते हैं. उन्हें वशा का पय पिलता है । ]

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