जाह्ापर्त ]
* सुदेवके रथ एवं उसके साथ भ्रमण करनेवाले देखता-नाग आदिका वर्णन +
ऋतु नेमि है। दक्षिण और उत्तर--ये दो अयन रथके दोनों
भाग हैं। मुहूर्त रथके इषु, कला, दम्य, क्यप्ठाएँ रथके कोण,
क्षण अक्षदण्ड, निमेष रथके कर्ण, ईषा-दण्डुः लव, रात्रि वरूथ,
धर्म रथका ध्वज, अर्थ और काम धुरीका अग्रभाग, गायत्री,
त्रिष्टपू, जगती, अनुष्ठुप्, पैक्ति, यूहती तथा उष्णिक्-- ये सात
छन्द सात अश्व हैं। धुरीपर चक्र धूपा है। इस प्रकारके रथमें
बैठकर भगवान् सूर्य निरन्तर आकारे भ्रमण करते रहते है ।
देव, ऋषि, गन्धर्व अप्सरा, नाग, प्ापणी और राक्षस
सूर्यके रथके साथ घूमते रहते हैं और दो-दो मासोकि याद इनमें
परिवर्तन हो जाता है।
धाता और अर्यमा--ये दो आदित्य, पुलस्त्य तथा पुलह
नामक दो ऋषि, खण्डक, वासुकिः नापक दो नाग, तुम्बुरु और
नारद ये दो गन्धर्व, क्रतुस्थत्म तथा पुक्िकस्थल्ता ये अप्सराएँ,
रथकृत्स्र तथा रथौजा ये दो यक्ष, हेति तथा प्रति नामके दो
रक्षस ये क्रमदाः चैत्र और वैद्ञाल मासमें रथ्के साथ चला
करते हैं।
मित्र तथा ककण नामक दो आदित्य, अग्रि तथा वसिष्ठ
ये दो ऋषि, तक्षक और अनन्त दो नाग, मेनका तथा सहजन्या
ये दो अप्सराएँ, हाहा-हूहू दो गश्चर्व, रथस्वान् और रथचित्र
ये दो यक्ष, पौरुषेय ओर बध नापक दो राक्षस क्रमञ्चः ज्येष्ठ
तथा आषाढ मासमें सूर्यरथके साध चला करते दै ।
श्रावण तथा भाद्रपदे इन्द्र तथा विवस्वान् नामक दो
आदित्य, अड्विरा तथा भृगु नापक दो ऋषि, एल्र्पर्ण तथा
ङ्का ये दो नाग, प्रम्त्मेचा और दुंदुका नामक दो अप्सराएँ,
भानु और दुर्दुर नामक गन्धर्व, सर्प तथा ब्राह्म नामक दो
ग्रक्षस, स्नोत तथा आपूरण नामके दो यक्ष सूर्यरथके साथ
चलते रहते है ।
आश्विन और कार्तिक मासमे पर्जन्य और पूषा नामके दो
आदित्य, भारद्वाज और गौतम नामक दो ऋषि, चित्रसेन तथा
वसुरूचि नामक दो गन्धर्य, विश्वाची तथा घृताची नामकी दो
अप्सरा, फेगयत और धनञ्जय नामक दो नाग और सेनजित्
तथा सुषेण नामक दो यक्ष, आप एव वात नामक दो राक्षस
सूर्यर्थके साथ चला करते हैं।
मार्गशीर्ष तथा पौष मासमें अंशु तथा भग नामक
१* ये नाम विष्णु आदि अन्य पुराणोंमें कुछ भेदसे भिरे हैं।
दो आदित्य, क्यप और क्रतु नामक दो ऋषि, महापद्य और
कर्कोरक नामक दो नाग, चिघ्राड्द और अरणायु नामक टो
गन्धर्व, सहा तथा सहस्या नामक दो अप्सराएँ, नार्य तथा
अरिष्टनेमि नामक यक्ष, आप तथा वात जामक दो राक्षस
सूर्यश्धके साथ चला करते है ।
माघ-फाल्शुनमें क्रमकः पृषा तथा जिष्णु नामक दो
आदित्य, जमदग्न और विश्वामित्र नामक दो ऋषि, काद्रवेय
और कम्बलश्वतर ये दो नाग, घृतराष्ट्र तथा सूर्यवर्चा नामकः
दो गत्धर्व, तिल्लेत्ममा और रम्भा ये दो अप्सराएँ तथा सेनजित्
और सत्यजित् नामक दो यश्व, ब्रह्मोपेत तथा यज्ञोपेत नामक
दो कषस सूर्यरथके साथ चला करते हैं'।
ब्रह्माजीने कहा--रुद्रदेव ! सभौ देवताओंने अपने
अशरूपसे विविध अख-शख्बोंको भगवान् सूर्यकी रक्षाक्े
लिये उन्हें दिया है। इस प्रकार सभी देवता उनके सथके
सांथ-साथ भ्रमण करते रहते हैं। ऐसा कोई भी टेवता नहीं है
जो रथके पीछे न चले। इस सर्वदेवपय सूर्यनारायणके
मण्डलको ब्रह्मवेत्ता ब्रह्मस्वरूप, याज्षिक सज्ञस्वरूप, भगतद्धक्त
विष्णुस्वरूप तथा दौय शिवस्वरूप मानते हैं। ये स्थानाभिमानी
देवगण अपने तेजसे भगवान् सूर्यको आप्यायित करते रहते
हैं। देवता और ऋषि निरन्तर भगवान् सूर्यकी स्तुति करते रहते
है, गन्धर्व-गण गान करते रहते हैं तथा अप्सराएँ रथके आगे
नृत्य करती हुई चलती रहती हैं। राक्षस रथके पीछे-पीऐ
चलते हैं । साठ हजार ऋलखिल्य ऋषिगण रथको चारों ओरसे
घेरकर चलते हैं। दिवस्पति और स्वयम्भू रथक्रे आगे, भर्ग
दाहिनी ओर, पद्मज बायीं ओर, कुबेर दक्षिण टिज्ञामें, वरुण
उत्तर दिशामें, वीतिहोत्र ओर हरि रथके पीछे रहते हैं। रथके
पोठमें पृथ्वी, मध्यमें आकाश, रथकी कान्तिमें स्वर्ग, ध्वजे
दण्ड, ध्वजाग्रमें धर्म, प्ताकामें ऋद्धि-वूद्धि और श्री निवास
करती हैं। ध्वजदप्डके ऊपरी भागमें गरुड तथा उसके ऊपर
वरुण स्थित हैं। मैनाक पंत छत्रका दण्ड, हिमाचल चत्र
होकर सूर्यके साथ रहते है । इन देवताओंका बल, तप, तेज,
योग और तत्व जैसा है वैसे हो सूर्यदेव तप्ते हैं । ये ही देव गण
तपते है, रसते हैं, सृष्टिका पालन-पोषण करते हैं, जीवोके
अज्ञुभ-कर्मक् निवृत्त करते हैं, प्रजाओंको आनन्द देते हैं और