७.८ यजुर्वेद संहिता
बलवान् बनायें । हे ग्रह ! नियमपूर्वक ग्रहण किये गये आपको महान् इन्द्रदेव की तृप्ति तथा प्रसन्नता के लिए
नियुक्त करते है । यही आपका स्थान है ॥३९ ॥
२८५. महोँ२ऽइन््रो य ऽओजसा पर्जन्यो वृष्टिमाँ? ऽइव । स्तोमैर्वत्सस्य वावृधे ।
उपयामगृहीतोसि महेन्द्राय त्वैष ते योनिममहिन्द्राय त्वा ॥४० ॥
जल के रूप में प्राण-पर्जन्य की वर्षा करने वाले, विशाल मेषो के समान्. हे महान् तेजस्वी इन्द्रदेव आप
साधको की स्तुति से प्रसन्न होकर सुखो की वर्षा करते है । हे माहेन्द्र ग्रह (इन्द्र के निमित्त नियुक्त सोम पात्र) !
नियमानुसार सत्पात्र भ ्रहण किये गये आपको महान् इद्धदेव की तृप्ति के लिए नियुक्त करते हैं, यही स्थान आपके
लिए सुनिश्चित है ॥४० ॥
२८६. उद् त्यं जातवेदसं देवं वहन्ति केतवः । दृशे विश्वाय सूर्य ४ स्वाहा ॥४१॥
चरचर जगत् को अपनी दिव्य रश्यियों से प्रकाशित करने वाते जो सूर्यदिव प्राणिमात्र को पदार्थों का ज्ञान
कराने के लिए, ऊपर से अपनी किरणों को बिखेरते हैं, उन्हीं के लिए यह आहुति समर्पित है ॥४१ ॥
२८७. चित्रं देवानामुदगादनीकं चक्षुर्मित्रस्थ वरुणस्थाग्ने: । आप्रा द्यावापृथिवी अन्तरिक्ष
४ सूर्यऽआत्मा जगतस्तस्थुषश्च स्वाहा ॥४२ ॥
मित्र. वरुण और अग्नि आदि देवताओं के नेत्रूप, स्थावर ओर जंगम जगत् के आत्मारूप जो सर्वदेव
अपनी दिव्य (प्रकाश) किरणों से पृथ्वी, अन्तरि क्च एवं द्युलोक को तेजस्विता प्रदान करते हैं; उन्ही देव के लिए
यह आहुति समर्पित है ॥४२ ॥
२८८. अम्ने नय सुपथा रायेऽ अस्मान्विश्वानि देव वयुनानि विद्वान् ।
युयोध्यस्मज्जुहुराणमेनो भूयिष्ठां ते नम उक्तिं विधेम स्वाहा ॥४३॥
प्रगति के सभी मार्गों (विधियों ) को जानने वाते हे अग्निदेव ! आप ऐश्वर्य की कामना करने वाते (हम)
याजको को श्रेष्ठ मार्ग पर ले चलें । सत्कर्म में बाधक पाप-वृत्तियों को हमसे दूर करें । हम नम्नतापूर्वक स्तुति
करते हुए आपको हवि प्रदान कर रहे हैं ॥४३ ॥
२८९. अयं नोऽअग्नर्वरिवस्कृणोत्वयं मृधः पुरऽएतु प्रभिन्दन्। अयं वाजाञ्जयतु
वाजसातावय ४ शत्रूञ्जयतु जरहषाणः स्वाहा ॥४४॥
यह अग्निदेव, हमारे शत्रुओं को युद्ध के मैदान में छिन्न-भित्र करके, उन्हें परास्त करते हुए, उनके द्वारा
(शत्रुओं द्वारा) जमा किया गया धन-धान्य, हमें प्रदान करें । शत्रुओं को पराजित करने वाले अग्निदेव के लिए
यह आहूति समर्पित करते हैं ॥४४ ॥
२९०. रूपेण वो रूपमभ्यागां तुथो वो विश्ववेदा विभजतु । ऋतस्य पथा प्रेत चन्द्रदक्षिणा
वि स्वः पश्य व्यन्तरिक्षं यतस्व सदस्यैः ॥४५ ॥
हे दक्षिणे (श्रद्धापूर्वक यज्ञकर्ता ओं के लिए समर्पित धनादि ) ! भली- भांति हम आपके स्वरूप को जान चुके
हैं, सर्वद्रष्टा प्रजापति आपको ऋत्विजो के लिए विधिपूर्वक वितरित करें । आपको प्राप्त कर हम सत्यमार्ग के
अनुगामी बनें तथा सूर्यदेव जिस प्रकार अनन्त अन्तरिक्ष का अवलोकन करे में समर्थ हैं, उसी प्रकार हम भी
दुरदृष्टि से युक्त हों. ॥४५ ॥
जिस प्रकार सदेव सारे विश्व को दृष्टि पे रखकर ऊर्जा का वितरण करते हैं, वैसी ही दृरदषटि के साच दक्षिणा में प्राप्त
धनादि का उपयोग कल्याणकारी प्रयोजन में किया जाना चाहिए. ]