आचारकाण्ड ]
* गृहस्थधर्म-निरूपण *
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ब्राह्मण, क्षत्रिय एवं वैश्यवर्णक लिये क्रमशः सोलह,
वाईस और चौबीस वर्षतक उपनयनकाल रहता है। इस
कालतक उपनयन न होनेपर ये सभी पतित हो जाते हैं,
सर्वधर्मच्युत हो जाते हैं। उनका किसो भौ धर्मकार्यमें
अधिकार नहीं रहता। त्रात्यस्तोम नामके क्रतुका अनुष्ठान
करके ही ये यज्ञोपवीत-संस्कारके लिये योग्य होते हैं।
ब्राह्मण, क्षत्रिय एवं वैश्य सबसे पहले माताके उदरसे उत्पन्न
होते हैं, उसके बाद पुनः मौंजीबन्धन अर्थात् यज्ञोपवीत-
संस्कारसे उनका द्वितीय जन्म होता है। अतः ये द्विजाति
कहलाते हैं।
औत-स्मार्त यज्ञ, तपस्या (चान्द्रायण आदि ब्रत) और
शुभकर्मों (उपतयत्र आदि संस्कारो ) -का बोधक एकमात्र
वेद है । अतः द्विजातियोंके लिये वेद हौ परम कल्याणका
साधन है। इससे वेदमूलक स्मृतिर्योका भी उपयोग
स्पष्ट है।
जो द्विज प्रतिदिन ऋग्वेदका अध्ययन करता है, वह
देवताओंकों मधु एवं दुग्धसे तथा पितरॉको मधु एवं घृतसे
प्रतिदिन तृत्न करता है। जो द्विज प्रतिदिन यजुर्वेद, सामवेद
अधवा अधर्ववेदका अध्ययन करता है, वह घृत एवं
अमृतसे पितरों तथा देवताओंफो प्रतिदिन तृप्र करता है। ऐसे
ही जो द्विज प्रतिदिन वाकोवाक्य', पुराण, नाराशंसी `,
शाधिका', इतिहास तथा विद्याका' अध्ययन करता है, यह
पितरों एवं देवताओंको मांस (फल), दूध और ओदन
(भात)-से प्रतिदिन तृप्त करता है। संतृप्त ये देवता और
पितृजन भी इस स्वाध्यायशील द्विजको समस्त अभीष्ट शुभ
फलोंसे संतुष्ट करते हैं। द्विज जिस-जिस यज्ञके प्रतिपादक
बेद- भागका अध्ययन करता है, उस-उस यज्ञके फलकों
प्राप्त करता है। इसके अतिरिक्त भूमिदान, तपस्या और
स्वाध्यायके फलका भी भागौ होता है।
नैष्ठिक ब्रह्मचारीको अपने आचार्यके सांनिध्ये रहना
चाहिये । आचार्यके अभावमें आचार्यपुत्र ओर उसके अभाव
आचाय -पव्रौ तथा उसके भौ अभावमें चैश्वातर-अग्निके
आश्रये {अषनेद्रारा उपास्य अग्रिकी शरणमे) रहना
चाहिये। इस प्रकार अपने देहको क्षीण करता हुआ
जितेन्द्रिय द्विज ब्रह्मचारी ब्रह्मतोकको प्राप्त करता है । उसका
पुनः जन्म नहीं होता। (अध्याय ९४)
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गृहस्थधर्म-निरूपण
याज्ञवल्क्यजीने कहा--है यतत्रत मुनियो ! आप सभी
अब गृहस्थाश्रमके धर्मोका वर्णन सुतें।
(विद्याध्ययनको समाप्तिके पश्चात्) गुरूकों दक्षिणा
प्रदान करके उन्हींकी अनुज्ञासे स्नानकर शिष्यको ब्रह्मचर्यत्रतकी
समाप्ति करनो चाहिये। तदनन्तर कह सुलक्षणा, अत्यन्त
सुन्दर मनोरमा, असपिण्डा, अवस्थामें छोटी, अरोगा, भ्रातृमती,
भिन्न प्रवर एवं गोत्रवाली कन्यासे विवाह करे ।
सभी असपिण्डा कन्याको विवाहयोग्य बताया गया है ।
इससे यह स्पष्ट हो रहा है कि सपिण्डा कन्यासे विवाह नहीं
करता चाहिये। महर्षि प्राज्ञवल्क्थने यहाँ सपिण्डाके बारेमें
यह बताया है--मातासे लेकर उनके पिता, पितामह
आदिकी गणनार्मे पाँचवीं परम्परातक तथा पितासे लेकर
उनके पिता, पितामह आदिकी गणनामें स्रातर्वी परम्परातक
सपिण्ड्य समझना चाहिये। इसके मध्यमें आनेयाली कन्या
सपिण्ड्य तथा इसके मध्यमें न आनेवाली कन्या असरपिण्डा
होगौ । इसके अनुसार विवाहके लिये असपिण्डा कन्याका
चयन होना चाहिये। ऐसे ही उसी कन्यामे विवाह उचित
है, जिसका मातृकुल तथा पितृकुलमें पाँच-पाँच परम्परातक
सदाचार्, अध्ययन एवं पुत्र-पौज्रादिकी समृद्धिकौ दृष्टिसे
विख्यात हो। ऐसे ही कन्याके लिये समानवर्णमें उत्पन्न
श्रोत्रिय एवं विद्वान् पुरुष श्रेष्ठ होता है। अन्य विद्वानोंने जो
यह कहा है कि द्विजातियॉके लिये शुद्रकुलमें उत्पन्न हुई
कन्या भी ग्रहण करने योग्य होती है, यह मेरा अभिमत
जहां है, क्योंकि उस कन्यामें उससे विवाह करनेवाला
उसका पति ही स्वयं उत्पन्न होता है^। तीनों वर्ण तीन, दो,
एक इस क्रमसे वर्णे विवाह कर सकते हैं। शुद्र-वर्णको
१-खाक्तवाक्य -- प्रस्तोत्तरूप वेद - वाक्य । २-वताराशंसो--स्द्रदेैजत्य मन्त्र । ३-गाश्रिका- यज्ञ- सम्बन्धौ इन्द्र आदिको गायाएँ।
४ -इतिहस -- महाभारत आदि । ५-विद्या- वारुली आदि विभिन्न विद्याएँ। ६-' आत्मा वै जायते पुत्रः" के अनुझार पिता ही पुत्रके रूपये जन्म
स्वेता है।