पूर्वभागे बदुिशोऽध्यायः
तेतो मापाह पगवानघो गच्छ त्वाशु वै।
अन्तमस्य विजानीष्व उवं गच्छेऽहपित्वजः।७६॥
तदाशु समय॑ कृत्वा गतामूर््वपश्च तौ।
पितामहोऽप्यहं नानं ज्ञातवन्तौ समेत्व तौ॥७७॥
तय भगवान् शिव ने मुझ से कहा- तुम श्र हो (लिङ्ग
के) नीचे कौ ओर जाओ और इसके अन्त का पता लगाओ
और ये अजन्मा ब्रह्म ऊपर कौ ओर जाये। तदनन्तर शीघ्र
हो प्रतिज्ञा करके हम दोनों ऊपर तथा नोचे को ओर गये,
किन्तु पितामह तथा मैं दोनों ही उसका अन्त नहीं जान
पाये।
ततो विस्मयमापन्नौ भीतौ देवस्य शुलिनः।
पायया पोहितौ तस्य ध्वायन्तौ विश्वमीक्षरम्॥ ७ ८॥
प्रोरन्तौ महानादपोङ्कारं परमं पदम्।
ते प्राझलिपुटौ धूत्वा शष तुष्टुवतुः परम्॥७९॥
तदनन्तर ब्रिशूलथारौ देव कौ माया से मोहित हम दोनों
भयभीत एवं आश्र्यचक्छित हो गये और उन विश्वरूप ईशर
का ध्यान करने लगे। फिर परमपद महानाद ओंकार का
उरण करते हुए दोनों हाथ जोड़कर प्रणाम करते हुए परम
शभ्भु को स्तुति करने लगे।
ब्रह्मविष्णू उच्तुः
अनादिमूलसंसाररोगवैद्याय शम्मवे।
नमः शिवाय शान्ताय ब्रह्मणे लिब्डमूर्तये॥ ८ ०॥
प्रलयार्णवसंस्थाय प्रलयोद्धृतिहेतवे॥
नम: शिवाय शान्ताय ब्रह्मणे लिड्रमूर्ततये॥ ८ १॥
ज्वालापालाप्रतीकाय ज्वलनस्तम्भरूपिणे।
नमः शिवाय शान्ताय ब्रह्मणे लिङ्गमूर्तये॥। ८ २॥
आदिपध्यान्तहीनाय स्वभावामलदी्ये।
नमः श्िवायानन्ताय ब्रह्मणे लिड्रपूर्तवे॥८३॥
महादेवाय पहते ज्योतिषेडनसतेजसे।
नमः शिवाय शान्ताय ब्रह्मणे लिद्गमूर्तये॥ ८४॥
ब्रह्मा तथा विष्णु ने कहा- अनादि, मूलरूप, संसाररूपी
योगो के वैद्यस्वरूप शम्भु, शिव, शान्त, लिक्मूर्ति वाले ब्रह्म
को नमस्कार है। प्रलयकालीन समुद्र में स्थित रहने वाले,
सृष्टि और प्रलय के कारणरूप शिव, शान्त, लिड्र्मू्तिषारो
ब्रह्म को नमस्कार है। ज्वालापालाओं प्रलीकरूप, प्रज्यलित
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स्तम्भरूप, शिव, शान्त, तिङ्गशरीरधारो ब्रह्म को नमस्कार
है। आदि, मध्य और अन्त से रहित, स्वभावतः निर्मल
तेजोकूप शिव, जन्त तथा लिब्डस्वरूप मूर्तिमान् ब्रह्म को
नमस्कार है। महादेव, महान्, ज्योतिःस्वरूप, अनन्त,
तेजस्वी शिव, शान्त, लिङ्गस्वरूप ब्रह्म को नमस्कार है।
प्रधान पुरुष के भी ईश, व्योमस्वरूप, वेधा और लिङ्गमूर्ति
शिव, शान्त ब्रह्म को नमस्कार है।
निर्विकाराय सत्याय नित्यावातुलतेजसे।
जपः शिवाय शान्ताव ब्रह्मणे लिद्भमूर्तये॥८६॥
वेदाससाररूपाय कालरूपाय ते नम:।
जपः शिवाय शान्ताय ब्रद्नणे लिद्गमूर्तये॥८७॥
निर्विकार, सत्य, नित्य, अतुल तेजस्वौ, शान्त, शिव
लिङ्गमूतिं ब्रह्म को नमस्कार है। वेदान्तसार स्वप,
कालरूप, वुद्धिमान्, लिड्रस्वरूप, शिव, शान्त ब्रह्म को
नमस्कार है।
एवं संस्तृयपारस्तु व्यक्तो भूत्या पहेश्चर:।
भाति देवो महायोगी सूर्यकोटिसमग्रभ:॥ ८ ८॥
वक्तरकोटिसहस्रेण ग्रसमान इवाम्बरम।
सहस्नहस्तवरण: सूर्यसोपानिलोचनः॥८९॥
पिनाकपाणि्भगवान् कृनिवासास्तरिशुलधृका
व्यालयज्नोपवोतश्च पेषटुद्दुभिनिःस्वनः॥ ९०॥
इस प्रकार स्तुति किये जाने पर महायोगो महेश्वर देव
प्रकट होकर करोड़ों सूर्य के समान सुशोभित होने लगे। वे
हजाएों - करोड़ों मुखो से मानों आकाश को अपना ग्रास बना
रहे थे। हजारों हाथ और पैर वाले, सूर्य, चन्द्रमा तथा
अग्निरूप (तोन) नैयन वाले, पिनाकपाणि, व्याप्रचर्मरूप
बखधारौ, त्रिशुलधारी, सर्प का यज्ञोपवीत धारण करने वाले
और पेष तथा दुन्दुभि के सदृश स्वर वाले थे।
अथोवाच महादेव: प्रीतोऽहं सुरसत्तमौ)
पश्येत मां महादेव वं सर्वं प्रमृच्यताम्॥ ९१॥
युवां प्रसूततौ गेभ्यो पप पूर्व सनातनौ!
अयं पे दक्षिणे पारे ब्रह्मा लोकपितामह ः।
वापर च मे विष्णु: एलको हदये हर:॥९२॥
* महादेव ने कहा- हे श्रेष्ठ देवो! मैं प्रसन्न हूँ। मुझ महादेव
का दर्शन करों और समस्त भय का परित्याग करो। पूर्वकाल
में मेरे हौ शरीर से तुप दोनों सनातन (देव) उत्पन्न हुए थे।
मेरे दक्षिण पाच परे ये लोक पितामह ब्रह्मा, वाम पार्शव में
पालनकता विष्णु और हदय में शंकर स्थित है।