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उत्तराचिंके चतुर्थोऽध्यायः ४.३

८४८.ऋतेन पित्रावरूणावृतावृधावृतस्पृशा । क्रतुं बृहन्तमाशाथे ॥५ ॥

सत्य को फलितार्थ करने वाले, सत्य यज्ञ के पुष्टिकारक देव मित्रावरुणो ! आप दोनों हमारे पुण्यदायौ कार्यों

को सत्य से परिपूर्ण करें ॥५ ॥

८४९.कवी नो मित्रावरुणा तुविजाता उरुक्षया । दक्षं दधाते अपसम्‌ ॥६ ॥

अनेक कर्मों को सम्पन्न कराने वाले, विवेकशील, अनेक स्थलों में निवास करने वाले मित्रावरुणदव हमारी

क्षमताओं और कार्यों को पुष्ट बनाते हैं ॥६ ॥

८५०.इन्द्रेण सं हि दक्षसे संजग्मानो अविभ्युषा। मन्द्‌ समानवर्चसा ॥७ ॥

सदा प्रसनन रहने वाले, तेजस्वी, मल्द्गण, निर्भय रहने वाले पराक्रमी इन्द्रदेव के साथ (संगठित हुए)

अच्छे लगते हैं ॥७ ॥

[ विधिन वर्णों के सपान प्रतिधा-सम्पन व्यक्ति परस्पर सहयोग करें, तो सयाज सुखी होता है।]

८५१.आदह स्वधामनु पुनर्गर्भत्वमेरिरे दधाना नाम यज्ञियम्‌ ॥८ ॥

वे पूज्य, नाम धारण करने में समर्थ मरुत्‌, शीघ्र हौ अनादि (पोषक पदार्थो) को लक्ष्य करके, पुन: गर्भ को

प्राप्त करके (उपयुक्त आकार) ग्रहण करते हैं ॥८ ॥

[ यह सुत प्रकृति के चक्र को स्पष्ट करता है । पदार्थ उपयोग के याद विखण्डित होकर (सड़-गलकर) वायुरूप हो जाना

है । शीघ्र ही प्रकृति चक्र पें घूषकर पुनः अनादि के रूप में प्रकट हो जाता है ।]

८५२.वीड्‌ चिदारुजलुभिर्गुहा चिदिन्द्र बहिभिः । अविन्द उम्निया अनु ॥९ ॥

हे इन्द्रदेव ! सुदृढ़ किलेबंदी को ध्वस्त करने में समर्थ, तेजस्वी मरुट्गणों ने अवरुद्ध किरणों को प्रकट

किया ॥९ ॥

८५३.ता हुवे ययोरिदं पप्ने विश्वं पुरा कृतम्‌। इन्द्राग्नी न भर्धतः ॥१० ॥

सनातन, पराक्रमी, शत्रुनाशक, स्तोताओं के कष्टो को दूर करने वाते, इन्द्र और अग्निदेव का हम आवाहन

करते ह ॥१० ॥

८५४.उग्रा विघनिना पृथ इन्द्राग्नी हवामहे । ता नो मृडात ईदृशे ॥१९॥

शत्रुनाशक, महावली, इन्द्र ओर अग्निदेव का संग्राम (जीवन-समर) में सहायता के लिए हम आवाहन

करते हैं, ये हमे सुखी बनायें ॥११ ॥

८५५.हथो वृत्राण्यार्या हथो दासानि सत्पती | हथो विश्वा अप द्विषः ॥१२ ॥

भद्र पुरुषो के पालनकता हे श्रेष्ठ इन्ध और अग्निदेवो ! आप विघ्नो को दूर करें, कर्महीनो और देष करने

वालों का विनाश करें और समस्त शत्रुओं को नष्ट करे ॥१२ ॥

॥ इति द्वितीयः खण्डः ॥

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॥तृतीय: खण्ड: ॥

८५६.अभि सोमास आयवः पवन्ते मद्य॑ मदम्‌।

समुद्रस्याधि विष्टपे मनीषिणो मत्सरासो मदच्युतः ॥९ ॥

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