अध्याय ८३-८४ ]
प्रजा जिन पर्वतीय नदियोंका ही जल पीती है,
वे नदियाँ हैं-र्ञाक्षा, महाकदम्बा, मानसी,
श्यामा, सुमेधा, बहुला, विवर्णा, पुङ्खा, माला,
दर्भवतौ, भद्रनदी, शुकनदी, पल्लवा, भीमा, प्रभञ्जना,
काम्बा, कुशावती, दक्षा, काशवती, तुङ्गा, पुण्योदा,
चन्द्रावती, सुमूलावती, ककुपद्धिनी, विशाला,
करंटका, पीवरी, महामाया, महिषी, मानषौ ओर
चण्डा। ये तो प्रधान नदियाँ हैं, छोटी-छोटी
दूसरी नदियाँ भी हजारोंकी संख्यामें हैं।
भगवान् रुद्र कहते हैं--विप्रों! अब उत्तर
और दक्षिणके बर्षोंमें जो-जो पर्वतवासी कहे
जाते हैं, उनका मैं क्रमसे वर्णन करता हूँ,
आपलोग सावधान होकर सुनें। मेरुके दक्षिण
और शैतगिरिसे उत्तर सोमरसकी लताओंसे परिपूर्ण
“रम्यकवर्ष' है। (इस सोमके प्रभावसे) बहाँके
उत्पन्न हुए मनुष्य प्रधान बुद्धिवाले, निर्मल और
बुढ़ापा एवं दुर्गतिके वशीभूत नहों होते। वहाँ एक
बहुत बड़ा वटका भी वृक्ष है, जिसका रंग प्राय:
लाल कहा गया है। इसके फलका रस पीनेवाले
मनुष्योंकी आयु प्रायः दस हजार वर्षोंकी होती है
और वे देवताओंके समान सुन्दर होते हैं।
श्वेतगिरिके उत्तर और त्रिशृद्कपर्वतके दक्षिणमें
हिरण्मय नामक वर्ष है। वहाँ एक नदी है, जिसे
हैरण्यवती कहते हैं। वहाँ इच्छानुसार रूप धारण
करनेवाले कामरूपी पराक्रमी यक्षोंका निवास है।
वहाँके लोगोंकी आयु प्रायः ग्यारह हजार वर्षोंकी
होती है, पर कुछ लोग पन्द्रह सौ वर्षोतक ही
जीवित रहते हैं । उस देशमें बड़ुहर और कटहलके
वृक्षौकौ बहुतायत है। उनके फलोंका भक्षण
करनेसे हौ वकि निवासी इतने दिनोंतक जीवित
रहते हैं। त्रिश्ृड्रपर्वतपर मणि, सुवर्णं एवं सम्पूर्ण
रत्नोंसे युक्त शिखर क्रमशः उसके उत्तरसे दक्षिण
समुद्रतक फैले हुए हैं। वहाँके निवासी उत्तरकौरव
* नैषध एवं रम्यकवर्षोके कुलपर्वत, जनपद और नदियाँ *
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कहलाते हैं। वहाँ बहुत-से ऐसे वृक्ष हैं जिनसे
दूध एवं रस निकलते हैं। उन वृक्षोंसे वस्त्र और
आभूषण भी पाये जाते है । वहाँकों भूमि मणियोंकी
बनी है तथा रेतोंमें सुबर्णखण्ड मिले रहते हैं।
स्वर्गसुख भोगनेवाले पुरुष पुण्यकी अवधि समाप्त
हो जानेपर यहाँ आकर निवास करते हैं। इनकी
आयु तेरह हजार वर्षोंकी होती है। उसी द्वीपके
पश्चिम चन्द्रद्वीप है। देवलोकसे चार हजार योजनकी
दूरी पार करनेपर यह द्वीप मिलता है। हजार
योजनको लम्बाई-चौड़ाईमें इसकी सीमा है।
उसके बीचरमें “चन्द्रकान्त' और 'सूर्यकान्त' नामसे
प्रसिद्ध दो प्रस्नवणपर्वत हैं। उनके बीचमें 'चद्धावर्त्ता'
नामकी एक महान् नदी है, जिसके किनारे
बहुसंख्यक वृक्ष हैं और जिसमें अनेक छोटी-
छोटी नदियाँ आकर मिलती हैं। “कुरुवर्ष'की
उत्तरी अन्तिम सीमापर यह नदी है। समुद्रकी
लहरें प्राय: यहाँ आती रहती हैं। यहाँसे पाँच
हजार योजन आगे जानेपर 'सूर्यद्वीप' मिलता है।
वह वृत्ताकास्में हजार योजनके क्षेत्रफलमें फैला
हुआ है। उसके मध्यभागमें सौ योजन विस्तारवाला
तथा उतना ही ऊँचा श्रेष्ठ पर्वत है। उस पर्वतसे
*सूर्यावर्त” नाभकौ एक नदी प्रवाहित होती है।
वहाँ भगवान् सूर्यका निवासस्थान है। बहाँकी
प्रजा सूर्योपासक एवं दस हजार वर्ष आयुवाली
तथा सूर्यके ही समान वर्णको होती है। ' सूर्यद्वीप ' से
चार हजार योजनकी दूरीपर पश्चिमे भद्राकारनामक
द्वीप है। यह द्वीप समुद्री देशमें है। इसका क्षेत्रफल
एक सह योजन है । वहाँ पवनदेवकरा रत्रजटित
दिव्य मन्दिर है। जिसे लोग " भद्रासन" कहते हैं।
पवनदेव अनेक प्रकारका रूप धारणकर यहाँ
निनास करते रै । यहाँकी प्रजा तपे हुए सुवर्णके
समान वर्णवाली होती है ओर इनकी आयु प्रायः
पाँच हजार वर्पोकी होती है । [ अध्याय ८३-८४]
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