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अगस्त्य यात्रा-जनादन भाविर्भाव | { १४३

नियम तथा त्याग से दुष्कर्मो के विनाश होने के अन्त में बहुत ही शीघ्र

मुक्ति प्राप्ति हो जाया करती है ।२३। जो रूप जिस गुण से युक्त होता है उन

गुणों की एकता से प्राप्त किया जाता है । अन्य समस्त जगत्‌ के स्छ्पव वाला

है जो कर्म--भोग ओर पराक्रम से संयुत होता दै ।२८४। जो कर्मो के द्वारा

प्राप्त किया जाता है वह कर्मो' के त्याग से भी पाया जाया करता है। हे

तपस्विनु ! सभी के द्वारा उन दोनों का त्याग करना बड़ा ही कठिन होता

है ।२५। सत्‌ और असत्‌ कर्मों को प्रत्यक्ष रूप से जान लेना निविध्न और

सुगम होता है ।२६। आत्मा में स्थित गुण से जो सत्‌ हो या असत्‌ हो।

आत्मा के साथ एकता से जो भी ज्ञान है बहु समस्त सिद्धियों के देने बाला

होता है ।२७। तीन वर्णों से जो हीन हैं और महान्‌ पापी हैं ऐसे मनुष्यों को

भी जिसके केवल ध्यान से हो दुष्कृत भी सुकृत के स्वरूप में परिणत हो

जाया करता है ।२८।

येडचेयंति परां शक्ति विधिनाऽविधिनापि वा ।

न ते संसारिणो नूनं मुक्ता एव न संशयः ॥२६

शिवो वा यां समाराध्य ध्यानयोगबलेन च ।

ईश्वरः सवंसिद्धानामद्धंना री श्वरोऽभवत्‌ ।३०

अन्येऽब्जप्रमुखा देवाः सिद्धास्तद्धचानवेभवात्‌ ।

तस्मादशेषलोकानां त्रिषु राराधनं* विना ॥३१

न स्तो भोगापवगौं तु यौगपद्येन कुत्रचितु ।

तन्मनास्तदृगतप्राणस्तद्याजी तद्‌ गतेहकः ।(३२

तादात्म्येनैव कर्माणि कुवेनमुक्तिमवाप्स्यसि ।

एतद्रहस्यमाख्यातं सर्वेषां हितकाम्यया ॥३३

सन्तुष्टेनेव तपसा भवतो मुनिसत्तम ।

देवाश्च मुनयः सिद्धा मानुषाश्च तथापरे ।

त्वन्भुखांभोजतोऽवाप्य सिद्धि यातु परात्पराम्‌ ॥३४

इति तस्य वचः शरुत्वा हयग्रीवस्य शाङ््खिणः ।

प्रणिपत्य पुनर्वाक्यमुवाच मधुसूदनम्‌ ॥३५

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