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ब्राह्मपर्व ]

« सूर्य-प्रतिष्ठाका मुहूर्त ओर मण्डप बनानेका विन +

१३७

चहिये । कार्तिकियकी प्रतिमा कुमार-स्वरूप, हाथमे दाक्ति

लिये, अतिश्ञय सुन्दर बनवानी चाहिये। इनकी ध्वजा

मयूर-मण्डित होनी चाहिये।

इन्द्रकी प्रतिमा चार दाँतोंसे युक्त सफेद दाँतोंचाले ऐरायत

गजपर आरूढ़ तथा हाथमें कद्र धारण किये हुए बनवानी

चाहिये। इस प्रकार देवॉकी प्रतिमा शुभ लक्षणोंसे युक्त और

सुन्दर बनवानो चाहिये।

नारदजी बोले-- साम्ब! भगवान्‌ सूर्यकी इस प्रकास्की

प्रतिमा बनवाकर ईशानकोणमें चार तोरण, पल्लव, पुष्पमाला,

पताका आदिसे विभूषित कर फिर अधिवासनके लिये मण्डपका

निर्माण करवाना चाहिये । काष्ठकी मूर्ति श्री, विजय, बल, यश,

आयु और धन प्रदान करती है, मिट्टीकी प्रतिमा प्रजाका

कल्याण करती है। मणिमयी प्रतिमा कल्याण और सुमिश्ष

दान करती है, सुवर्णकी परतिमा पुष्टि, चाँदीकी मूर्ति कीरति,

ताक्नकी मूर्ति प्रजावृद्धि तथा पाषाणकी प्रतिमा विपुल भूमि ल्प्रभ

कराती है। लोहे, शो एवं राँगिकी मूर्तियां अनिष्ट करनेबाली

होती हैं, इसलिये इन धातुओंकी प्रतिमा नहो बनवानी चाहिये ।

साम्बने पूछा--नारदजी ! भगवान्‌ सूर्य सर्वदेवमय

कहे गये हैं, यह उनका सर्वदेवमयत्व कैसा है ? उसे कृपाकर

बतलाइये ।

नारदजीने कहा--साम्ब ! तुमने बड़ी अच्छी बात पूछी

है। अब मैं यह सब बता रहा हूँ। इसे ध्यानसे सुनो--

भगवान्‌ सूर्य सर्वदेवमय हैं, उनके नेत्रोंमें बुध और सोम,

ल्प्ररपर भगवान्‌ शंकर, सिरमे क्रह्मा, कपालमें बृहस्पति,

कण्ठमें एकादश रुदर, दाँतोंमें नक्षत्र और प्रहोंका निवास है।

ओष्टॉंमें धर्म और अधर्म, जिह्नामें सर्वशाख्मयी महादेवी

सरस्वती स्थित हैं। कर्णों्पे दिशाएँ और विदिद्वाएँ, तालडदेदामें

अहा और इन्द्र स्थित हैं। इसी प्रकार भ्रूमध्यमें बारहों आदित्य,

रोमकूपोंमें सभी ऋषिगण, पेटमें समुद्र, हृदयमें यक्ष, किन्नर,

गन्धर्व, पिदाच, दानव और राक्षसगण विराजमान हैं।

भुजाओंमें नदियाँ, कक्षोंसें वृक्ष, पीठके मध्यमे घेर, दोनों

स्तनोंके बीचमें मङ्गर और नाभिमण्डलमें धर्मराजका निवास

है। कटिप्रदेशमें पृथ्वी आदि, लिङ्गम सृष्टि, जानुओपे

अश्विनीकुमार, उरुऑमें पर्वत, नखोंके मध्य सातो पाताल,

चरणोकि बीच वन और समुदरसहित भूमण्डल तथा दन्तान्तरोमि

कात्म्नि रुद्र स्थिते है । इस प्रकार भगवान्‌ सूर्य सर्वदेवमय

तथा सभी देवताओंके आत्मा है । जैसे वायुसे विश्व व्याप्त है,

वैसे हो चराचर जगत्‌ इनसे परिव्याप्र है, क्योकि वायु भी

भगवान्‌ सूर्यके प्रत्येक अङ्गम ही स्थित रहता है। ऐसे ये

भगवान्‌ सूर्य सम्पूर्ण ऋ्रियोंपर अनुग्रह करनेके लिये निरन्तर

तत्पर रहते हैं।

(अध्याय १३२-१३३)

सूर्-प्रतिष्ठाका मुहूर्त और मण्डप बनानेका विधान

नारदजी बोले--साम्ब ! भगवान्‌ सूर्यकी स्थापनाके

लिये प्रतिपदा, द्वितीया, चतुर्थी, पद्मी, दवामी, त्रयोदशी तथा

पूर्णिघा--ये तिथियाँ प्रशस्त मानी गयी हैं। चन्द्रमा, बुध, गुरु

ओर शुक्त--इन ग्रहोंकि उदित एवं अनुकूल होनेपर भगवान्‌

सूर्यर्क प्रतिमाकी प्रतिष्ठा करनी चाहिये। सूर्यकी स्थापनामे

तीनों उत्तर, रेवती, अश्वनी, रोहिणी, हस्त, पुनर्यसु, पुष्य,

श्रवण और भरणी--ये नक्षत्र प्रशस्त हैं। प्रतिष्ठाके लिये

यज्ञभूमि भूसी, राख, केश आदिसे रहित एवं शुद्ध होनी

चाहिये । उसमें बालू, कंकड़ एवं कोयले न हों। दस हाथ

लेबा-चौड़ा मण्टप बनवाना चाहिये। उसके चारो ओर यृक्ष,

उद्यान, उपवनं आदि होने चाहिये। उस मण्डपमें चार हाथ

लंबो-चौड़ी वेदीका निर्माण करे। नदीके संगम-स्थानसे मिट्टो

अधवा बालू ल्कर वहाँ बिछाये | भलीभाँति मण्डपको गोबर

आदिसे उपस्ति करे, पूर्व दिका चतुर, दक्षिण दिद्ामें

अर्धचन्र, पश्चिम दिदे वर्तुलाकार और उत्तर दिशामें पद्मके

आकारवाले चार कुण्डोंका निर्माण करे। बट, पौल, गूलर,

बेल, पल्माश,, शमी अथवा चन्दनके द्वारा पाँच-पाँच हाथके

खंभे छगाये । शह वख, पुष्यमात्प, कुदा आदिके द्वा प्रत्येक

खंभेकों अलंकत करे ।

मण्डपके मध्यमे अलेकृत वेदौके ऊपर कुशा बिछाकर

पुष्पॉंसे आच्छादित करे या इककर प्रतिमाको रखे । मण्डफ्के

आटो दिज्ञाओँमें क्रमः पीत, रक्त, कृष्ण, अञ्जनके समान

नील, श्वेत, कृष्ण, हरित और चित्रवर्णकी आट पताकाएँ आठ

दिक्पात्त्रेकी प्रसन्नताके लिये लगाये । सफेद और लाल चूर्णसे

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