Home
← पिछला
अगला →

मङ्गलकृत्य करे, व्यजनं डुलावे एवं पूजन करे। | वेदिकापर विन्यस्त करें। वहाँ चरु निर्मित करके

फिर दीप, गन्धं तथा पुष्पादिसे यजन करे। | उसकी आहुति देनेके पश्चात्‌ पायसका होम करे।

हरिद्रा, कपूर, केसर और श्रेत-चन्दन-चूर्णको | फिर वरुणदेवतासम्बन्धी मन्त्रोंसे तीथाँका आवाहन

देवमूर्ति तथा भक्तोके सिरपर छोड़नेसे समस्त

तीर्थोंके फलकी प्राप्ति होती है। आचार्य यात्राके

लिये नियत देवमूर्तिकी रथपर स्थापना और

अर्चना करके छत्र-चंवर तथा शङ्खनाद आदिके

साथ राष्ट्रका पालन करनेवाली नदीके तटपर ले

जाय॥ ११--१४॥

नदीमें नहलानेसे पूर्व बहाँ तटपर वेदीका

निर्माण करे। फिर मूर्तिको यानसे उतारकर उसे

करे। "आपो हि घ्ठा०' आदि मन्त्रोंसे उनको अर्घ्य

प्रदान करके पूजन करे। देवमूर्तिकों लेकर जलमें

अघमर्षण करके ब्राह्मणों और महाजनोंके साथ

स्नान करें। स्नानके पश्चात्‌ मूर्तिको ले आकर

वेदिकापर रखे । उस दिन देवताका वहाँ पूजन

करके देवप्रासादमें ले जाय। आचार्य अग्ने

स्थित देवका पूजन करे । यह उत्सव भोग एवं

मोक्ष प्रदान करनेवाला दै ॥ १५--१९॥

इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराणमें "उत्सव -विधि-कथन ' नामक अड़सठवाँ अध्याय पूर हुआ ॥ ६८ #

उनहत्तरवाँ अध्याय

स्नपनोत्सवके विस्तारका वर्णन

अग्निदेव कहते ह~ ब्रह्मन्‌! अब मैं

स्नपनोत्सवका विस्तारपूर्वक वर्णन करता हूँ।

प्रासादके सम्मुख मण्डपके नीचे मण्डलपें कलशोंका

न्यास करे। प्रारम्भकालमें तथा सम्पूर्ण कर्मोंको

करते समय भगवान्‌ श्रीहरिका ध्यान,

पूजन और हवन करे । पूर्णाहुतिके साथ हजार या

सौ आहुतियाँ दे। फिर स्नान-दरव्योको लाकर

कलशोंका विन्यास करे । कण्ठसूत्रयुक्त कुम्भोंका

अधिवासन करके मण्डलमें रखे ॥ १--३॥

चौकोर मण्डलका निर्माण करके उसे ग्यारह

रेखाओंद्वारा विभाजित कर दे। फिर पार्श्चागकी

एक रेखा मिटा दे। इस तरह उस मण्डलमें चारों

दिशाओंमें नौ-नौ कोष्ठकोंकी स्थापना करके

उनको पूर्वं आदिके क्रमसे शालिचूर्ण आदिसे

पूरिति करे। फिर विद्वान्‌ मनुष्य कुम्भमुद्राकौ

रचना करके पूर्वादि दिशाओं स्थित नवके

मध्यमे विन्यस्त करे । शेष आठ कुम्भे क्रमशः

यव, त्रीहि, तिल, नीवार्‌, श्यामाक, कुलत्थ,

मुद्ग और श्वेत सर्षप डालकर आठ दिशाओंमें

स्थापित करे । पूर्वदिशावततीं नवकमें घृतपूर्ण कुम्भ

रखे । इसमें पलाश, अश्वत्थ, वट, विल्व, उदुम्बर,

प्लक्ष, जम्बू, शमी तथां कपित्थ वृक्षकी छालका

क्वाथ डाले। आग्नेयकोणवर्ती नवकमें मधुपूर्णं

घटका न्यास करे। इस कलशे गोश्वृड़, पर्वत,

गङ्गाजल, गजशाला, तीर्थ, खेत ओर खलिहान -

इन आठ स्थलोंकी मृत्तिका छोड़े॥ ४ -१०॥

दक्षिणदिशावर्ती नवकर्म तिल-तैलसे परिपूर्ण

घट स्थापित करे। उसमें क्रमशः नारंगी, जम्बीरी

नीव, खजूर, मृत्तिका, नारिकेल, सुपारी, अनार

ओर पनस (कटहल)-का फल डाल दे।

नैऋत्यकोणगत नवकमें क्षीरपूर्णं कलश रखे।

उसमें कुङ्कुम, नागपृष्प, चम्पक, मालती, मल्लिका,

कलश लाकर रखे। पुण्डरीकाक्ष-मन्त्रसे उनमें | पुंनाग, करवीर एवं कमल-कुसुमोंको प्रक्षिप्त

दर्भ डाले। सर्वस्त्नसमन्बित जलपूर्णं कुम्भको | करे। पश्चिमीय नवकमें नारिकेल-जलसे पूर्ण

← पिछला
अगला →