१३८
* पुराणं गारुडं वक्ष्ये सारं विष्णुकथाश्रयम् *
[ संक्षिप्त गठडपुराणाडु
%ऋ#ऋऋऋऋ#ऋ_#####कऋऋऋऋ कक ऋ#ऋ#ऋ# ##कऋऋ कफ #ऋकऋक#ऋ ##ऋ# #ऋ#ऋ कक ऋऋऋकऋऋकऋ कफ कक कक काका ऋफऋफ़कफ कक कक फफकफकफऋ कफ कक लाला आम आखक
अपने ही वर्णसे कन्या प्राप्त करती चाहिये।
अपने घरपर वरकों बुलाकर उसे यथाज्ञक्ति अलंकृत
अपनी कन्या प्रदान करना 'ब्राह्मविवाह' है । इस विधिसे
विवाहित स्तरी-पुरुषसे उत्पन्न होनेवाली संतान दोनों कुलोकि
इक्कीस पीदिर्योको पवित्र करती है। यज्ञदीक्षित ऋत्विक्
ब्राह्मणको अपनी कन्या देना * दैवविवाह ' है तथा वरसे एक
जोड़ा गौ' (स्त्री गौ एवं पुरुष गौ) लेकर उसको कन्या प्रदान
करना “ आर्पवियाह ' कहा जाता है । इस प्रधम (ब्राह्मयिवाह )
विधिसे विवाहित स्त्री -पुरुषसे उत्पन्न पुत्र अपनी प्रथमकौ
सात तथा बादकी सात- इस तरह चौदह पीदिर्योको पवित्र
करता है। आर्षविधिके विवाहसे उत्पन्न पुत्र तीन पूर्व तथा
तोन बादकी- इस तरह छः पीढ़ियॉकों पवित्र करता हैं।
"तुम इस कन्यके साथ धर्मका आचरण करो" यह
कहकर विवाहकौ इच्छा रखनेवाले वरको पिताके द्रा जब
कन्या प्रदान कौ जातौ है, तब ऐसे विवाहको "काय
( प्राजापत्य) -विवाह ' कहते है । इस चिवाह -विधिसे उत्पन्न
पुत्र अपनेसहित पूर्वकी छः तथा बादकौ छः पीदिर्यो- इस
तरह कुल तेरह पीढ़ियॉकों पवित्र करता है । कन्यके पिता
या बन्धु बान्धव अधवा कन्याको हौ यथाशक्ति धन देकर
यदि कोई वर उससे विवाह करता है तो इस वियाहको
"असुरविवाह' और वर एवं कन्याके बीच पहले हौ
पारस्परिक सहमति हो जानेके बाद जो विवाह होता है,
उसको ' गान्धरवंविवाह ' कहते हैं। कन्याको इच्छा नहीं है,
तब भी बलात् युद्ध आदिके द्रात अपहत उस कन्याके साथ
विवाह करना ' राक्षसविवाह' है । स्वाप (शयन) आदि
अवस्था अपहरणकर उसके साथ जो विवाह किया जाता
है, उसको 'पैशाचविवाह' कहते हैं।
इन उपर्युक्त आठ विवाहोंमें प्रथम चार प्रकारके विवाह
अर्थात् ब्राह्म, दैव, आर्थं और प्राजापत्यविवाह ब्राह्मणवर्णके
लिये उपयुक्त हैं। गान्धर्वविवाह तथा खक्षसविवाह क्षत्रिय-
वर्णके लिये उचित है। असुरविवाह वैश्यवर्ण और अन्तिम
गर्हित पैशाच कामक विवाह शुद्रवर्णके लिये (उचित) माना
गया हैं।
समान वर्णवाले बर-कन्याके विवाहमें कन्याओकि द्वार
गृह्मसूत्रकी विधिके अनुसार चरका पाणिग्रहण अर्धात् हाथ
पकड़ना चाहिये । शत्रियकन्या ब्राह्मणवरसे विवाह करते
समय ब्राह्मणवरके दाहिने हाथमें विद्यमान शर (बाण ) -के
एकदेशको ग्रहण करे । वैश्यकन्या ब्राह्मण अथवा क्षत्रियवरसे
वियाह करते समय चरके हाथमें चिद्यपान चाबुकके
एकदेशको ग्रहण करे । ऐसे ही शूद्रकन्या ब्राह्मण, क्षत्रिय
अधवा वैश्यवरसे विवाह करते समय वरके उत्तरौय वस्त्र
(ऊपर ओढ़े हुए चादर)-के किनारेको ग्रहण करे ।
पिता, पितामह, भ्राता, सकुल्य' ( बन्धु-वन्धव) अधवा
माता कन्यादान करनेके अधिकारौ हैं। पूर्वके अभावमें
उत्तरोत्तर कन्यादानके अधिकारी हैं, यदि उन्याद आदि
दोषसे ग्रस्त नहीं हैं। यदि कन्यादानका अधिकारी समयपर
कन्यादान न करे तो कन्याके ऋतुमती हो जानेपर कन्यादानके
अभिकारीको कन्याके प्रति ऋतुकालमें एक-एक भ्रूणहत्याका
पाप लगता है। कन्यादानके दाताके अभाषमें कल्याको स्वयं
उपयुक्त वरका वरण कर लेना चाहिये ।
कन्या एक बार दी जाती है, इसलिये कन्या एक बार
देकर पुनः उसका अपहरण करनेवाला चौरकर्मके समान
दण्डका भागी होता है। निर्दुष्ट अर्धात् सौम्य सुशीला पत्नीका
परित्याग करनेपर पति दण्डनीय है, किंतु अत्यन्त दुष्ट
{ महापातक आदिसे दुष्ट) पत्रीका उपायान्तरके अभावमें
परित्याग किया जा सकता है।
यदि कन्याका किसी वरके साथ विवाह करनेके लिये
वाग्दानमात्र किया गया हो, अनन्तर विवाहके पूर्व ही वरका
मरण हो गया तो कलियुगसे अन्य युगॉमें ऐसी कन्याको पुत्र
प्राप्त करनेका उपाय यह है-- ऐसी कन्या पुत्र चाहती है तो
उसका देवर अथवा कोई सपिण्ड या कोई सगोत्र बड़ॉंकी
आज्ञा प्राम होनेपर अपने सभी अङ्गोमे घृतलेप कर
१-कत्याका पिता वसे गौका जोड़ा मूल्यके रूपमें नहीं लेता। आवश्यक्रतावश धर्मकरर्य ( याण आदि) सम्पन्न करनेके लिये होता है। इसलिये
मनुस्मृति (३। २९)-के अनुर्कर जितनासे धर्मकयर्य हों सके, उतना हौ (एक हो गौ या गौका ओड़ा) कन्या-पिताकों बरसे ले चहिये ।
२-दूसरे वर्नसे विवाह करनेकी यह व्यवस्था कलियुगके लिये नहीं है।
३-मकुल्य-- आत्वा पीढ़ोसे दसौ पौदौतक * ससकुल्य ' कहा जता है।