आचारकाण्ड ]
» गृहस्थधर्म-निरूपण *
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ऋतुकालमात्रमें उस कन्याके पास तबतक जा सकता है,
जबतक गर्भ-धारण न हो। गर्भ-धारणके बाद यदि वह
ऐसी कन्याके पास जाता है तो पतित हो जाता है। इस
विधिसे इस कन्यास उत्पन्न पुत्र जिस वरकों कन्याका
वाण्दान किया गया धा, उसका क्षेत्रज पुत्र माना जाता है।
जो स्त्री व्यभिचारिणी है, बहुत प्रयत्र करनेपर भी
व्यभिचारसे विरत नहीं हो रही है, उसको अपने गर्हित
जोवनके प्रति वैराग्य उत्पन्न करनेके लिये अपने घरमे हो
रखते हुए समस्त अधिकारोंसे अलग कर देना चाहिये तथा
उसे मलिनदज्ामें हो रखकर उतना हौ भोजन देना चाहिये,
जितनासे उसकी प्राणरक्षामात्र हो सके। साथ ही उसके
निन्दनीय कर्पके लिये उसको भत्संता करनो चाहिये और
भूमिपर हौ उसके शयनकौ व्यवस्था करनौ चाहिये।
स्त्रियॉँकों विवाहसे पूर्व चन्द्रने शुचिता, गन्धर्वने सुन्दर
मधुर वाणी एवं अग्निने सब प्रकारकी पवित्रता प्रदान की
है। इसोलिये स्त्रियाँ पवित्र ही होती हैं। अतएव उनके लिये
अतप प्रायश्ित्तकौ व्यवस्था है। पर इतनेसे यह नहीं
समझना चाहिये कि स्त्रियोंमें दोषका संक्रमण नहीं होता है।
यदि कोई स्त्री केबल मनसे पर पुरुषकों इच्छा करती है
तो यह भी एक तरहका व्यभिचार ही है। ऐसे हो अन्य
पुरुषसे सम्पर्क करनेका संकल्पमात्र कोई स्त्री कर लेती है
तो यह भी किसी रूपमें व्यभिचार ही है। ऐसा व्यभिचार
यदि प्रकाशमें नहीं आया है तो इससे उत्पन्न दोषका मार्जन
उस स्त्रीके ऋतुकालमें रजोदशंनसे हो जाता है। यदि पर
पुरुष शूद्रके साथ सम्पर्क कर कोई स्त्री गर्भधारण कर लेतौ
है तो इस पाएका प्रायश्चित्त उस स्त्रीका त्याग हो है। ऐसे
ही गर्भवध, पतिका वध, ब्रह्महत्या आदि महापातकसे ग्रस्त
होनेपर तथा शिष्य आदिके साध गपत् करतेवालों स्त्रोका
त्याग हो कर देना चाहिये।
मदिरापान करनेवाली, दीर्घं रोगिणी, द्वेष रखनेवाली,
वन्ध्या, अर्थका नाश करनेवाली, अप्रियवादिनी ( निहुरभाषिणी ),
१-इन नियर्मोका पालन कानेणालेको “ग्रह्मछारो' कहा गया है ।
कन्याको हौ उत्पन्न करनेवाली एवं पक्तिका अहिच हौ
करनेवाली भार्याका परित्याग कर दूसरा विवाह किया जा
सकता है । प्रथम विवाहिता (परित्यक्ता) स्त्रीका भी दान,
मान, सत्कार आदिक द्वारा भरण करना चाहिये, अन्यधा
उस स्त्रौके पतिको महापाप होता है । इसके अतिरिक्त यह
भी ध्यान देने योग्य है किं जिस घरमें पति-पंत्रीके मध्य
किसी भी प्रकारका विरोध नहीं होता, उस रमे धर्म-अर्ध
और काम- इस त्रिवर्गकौ अभिवृद्धि होती है । अतः प्रथम
विवाहिता एवं वर्तमान भार्याम, अस्वीकृत स्त्री भी पूर्वमे
भार्या रही है। इस दृष्टिसे उससे विरोध नहीं ही करना
चाहिये । उसे पूर्ण प्रसन्न रखना चाहिये। जो स्तनौ पतिकी
मृत्युके पश्चात् अथवा उसके जीवित रहते हुए अन्य
चुरुषका आश्रय नहीं लेती, वह इस लोकमें यश प्राप्त करतौ
है और अपने पातित्रत्य-पुण्यके प्रधावसे परलोकर्में जाकर
पार्वतीके स्ाहचर्यमें आनन्द प्राप्त करती है।
यदि पति अपनी स्त्रीका परित्याग करता है तो उस
स्त्रीकों भरण-पोषणके लिये अपनी सम्पत्तिका तृतीयांश दे
देना चाहिये।
स्थियोंको अपने पतिकी आज्ञाका पालन करना चाहिये-
यहौ उनका परम धर्म है। स्त्रियोंमें ऋतु अर्थात् रजोदर्शनके
प्रथम दिनसे सोलह रात्रितक उनका ऋतुकाल होता है।
अतः पुरुषको उच्छ सोलह रात्रियोंकी युग्म रात्रियोंमें अपनी
पत्नीके साथ पुत्र-प्राप्तिक लिये संसर्ग करना चाहिये'।
पर्वोकी तिथियोंमें' तथा ऋतुकालकौ प्रारम्भिक चार तिथिय
सहवास नहीं करना चाहिये) अपनी अपेक्षा क्षाम { दुर्बल)
स्त्रीका सहास पुत्र- प्रतिम सहायक होता है । पपा और
मूल नक्षत्रमें सहवास वर्जित है ।
इन नियमोंका पालन करके हौ अपनो स्त्रौसे सुन्दर,
सबल, उत्तम लक्षणॉयाले नोरोग पुत्रको उत्पन्न किया जा
सकता है। स्त्रियॉकों इन्द्रने जो वर दिया है, उसे ध्याने
रखते हुए पुरुष यथाकामी (पत्नीकी इच्छानुसार ऋतुकालकौ
२-पर्व-तिधि चार है- अष्टमी, चतुर्दशी, अमावास्या और पूर्णिया (मव् ४। १५६)।
३-एक बार स्वि्योनि पुरुषकी अपेक्षा आठगुनों अपनी कामभायनासे ग्राध्य होकर इन्द्रदेवकी शरणमें आकर अपने मत्ोभावकों उतसे
रूप्ट किया। इन्द्रदेवने स्त्ियोंके भावकों जानकर उन्हें वर दिया--' भवतीजां कामविहन्ता पातकी स्थात्' (* आप लोगॉकी करमभावनाकया हनन
करनेवाला पुरुष पातकी होगा ' ) । इमौ यरके अनुम्बर पत्नोकी इच्छाके अनुसार ऋ्तुकालसे अन्य कालकौ अनिषिद्ध रांत्रियॉमें भी पत्रीगमत
अनुज्ञात है।