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अक्रक 30.22.322

* स्नात माकण्डयपुराण र

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श्रीगड़गाजीकी उत्पत्ति, किम्पुरूष आदि वर्योकी विशेषता तथा

भारतवर्षके विभाग, नदी, पर्वत और जनपदोंका वर्णन

प्रार्कण्डेचजी कहते हैं-- द्विज श्रेष्ठ दिश्चयोनि

भगवान्‌ नारायणका जो ध्रुदाधार नामक पद हैं,

उसीसे त्रिपथगामिनी "गवती गदान प्रादर्भाव

हुआ है। वहाँसे चलकर वे सुधाकी उत्पत्निके

स्थान और ज्लके आधारभूत न-द्गरमण्हलमें प्रविष्ट

हुई और सूर्यकाँ किरणोेंके सम्पर्कसे अत्यन्त

पवित्र हो पेरुपर्वतके शिखरपर गिरों। वहाँ उनकी

चार धारएँ हो गयों। मेरुकरे शिखरों और तरोंसे

नीचे गिगतौ-बहती गङ्गाका छल चारों ओर बिखर

गया और आधार ~ दीक कारण नने गिरने

लगा। इस प्रकार वह जल मन्दर आदि चारों

पर्वतोंपर बराबर-बराबर चँंट गया। अपने बेगसे

अड़े-बड़े पर्वतोंकों विदौर्ण करती हुई गङ्गाक्ती जो

धार पूर्व दिशाकी ओर गयो, वह सीताके नामसे

बिख्यात हुई। सोता चंत्ररथ नामक चनक) जलसे

आप्लातित करती हुई वरुणोद सरोचरनं गय और

वर्हामि एीतःना पर्वत तथा अन्य पहाड़ोंकों लॉघतों

हुई पृथ्वीपर पहुँची। "हौ + धवष होतो हुई

समुद्रम मिल गयों। इसी प्रक्रार पेरुके दक्षिण

गन्धमादनपर्वतपर जो गड्जाकों दूसरों धारा गिरी,

बह अलकन-दाके नामसे बिख्वात हुई। अलकनन्दा

गेरुकी घाटियॉपर फैले हुए. तन्दन चनन, जो

देवताओँकों आनन्द प्रदान करनेत्नाला है, बहती

हुई बड़े बेगसे चलकर मानसरोवस्में पहुँवीं। उस

सरोत्ररक्कों अपने जलसे घरिपूर्ण करके श्ग।

श्ैलगजके रमणोय शिष्टररपर भर्व | वहाँसे क्रमणः

दक्षिणमें स्थित समस्त पर्वत अपने जलसे

आप्लावित करतौ हूई महागिरि हिसचागूपर जा

१हुँचीं। वहाँ भगवान्‌ श्धरने गद्गाजीको ओपन

शोशपर धारण कर लिया और फिर नहीं क्ोड़ा।

+इसांक्रों शिशुणार ८५ भी दते हैं

तब राजा भगीस्थने आकर उपवास और स्तुतिक्के

द्वारा भगवान्‌ शिचक्की आराधना को। अम्से प्रस

होकर महादेवजीने गद्भाकों छोड़ दिया। फिर ५

सात धाराओंपें निभक्तं होकर दक्षिण समुद्रमें जः

गिली। उसकी हींग धाराएँ तो पूर्ण दिशाकों ओर

गायं । एक धारा भगोरथके पीछे-पीछे दक्षिण

दिशाकी ओर बहने लगी।

गेरुगिरिक्रे पश्चिमर्भे जौ विपुल नामक पर्वत

है, उसपर गिरो हुई गहानदी गद्लाकी धारा

स्‍4९क्षुके नामसे विस्यात हुई। वहाँसे नैरा

पर्वतपर होती हुई स्वरश्रु शीतोद सरोवरमें गी

और उर आप्लावित करके त्रिशिख १५५१

पहुँच ग्य । [५९ यहाँसे अन्य पर्वतोंके शिखरोंपर

होती हुई केतुरालबर्षमे पहुंचकर खरे पानोंके

सपुद्रये रिसत गयी । सेरुके उत्तरी य ५4 भुपार्धपवंतपर

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