१४६ | [ मत्स्य पुराण
ब्राह्मणों मे शाव (मृतक) अशौच दण दिन का माना जाता है-क्षत्रियों
में बारह दिन का मृतकाशौच होता है और वैश्यों में एक पक्ष का यही
आशौच हुआ करता है ।२। शूद्रों में जो भी सपिण्ड होते हैं एक मास
का आशौच रहा करता है। जो बालक चूडा संस्कार से रहित हो उस
के आशौच एकनिशा का था अधिक से अधिक तीन राशच्रि का ही कहा
गया है ।३। सर्वदा जिस प्रकार से विभिन्न वर्णों में मृतताशौच होता
है उसी भाँति जनन में भी हुआ करता है । तआ अस्थियों के सञ्चय
करने से ऊध्व में अङ्ग स्पर्श का विधान है ।४। प्रेत के लिए पिण्डों का
दान बारह दिन समाचरण करे । यह उसका यमपुरी के मार्गका पायेय
कहा गया है अर्थात् मार्ग भोजन है क्योकि यह उसको महान् प्रीति का
करने वाला हुआ करता है ।५। इसलिए यह सुसिद्ध है कि बारह दिन
तक प्रेत प्रेतों के पुर में नहीं पहुँचाया जाता है । वह प्रेत बारह दिन
तक अपने घर को, पुत्र को और भार्या को बराबर देखता ख्हता है ।६
इसलिए दश रात्रि पर्यन्त आकाश में अर्थात् पीपल आदि वृक्ष पर पय
(जलकुम्भ) रखना चाहिए अर्थात् जलका घट भरे । यह सब प्रकार के
दाह की उप शान्ति के लिए और मार्ग के श्रम का विनाश करने के
लिए ही होता है ।७।
ततः एकादशाहे तु द्विजानेकाशेव तु ।
क्षत्रादिः सूतकान्ते तु भोजयेदयुतो द्विजान् ।८
द्वितीयेऽहिन पुनस्तद्वदेकोदिष्टं समाचरेत् !
आकाहनाग्नौकरणं दैवहीनं विधानतः ।€
एक पवि त्रमेकोधं एकः पिण्डो वि धीयते ।
उपतिष्ठतामित्येतद् यं पश्चात्तिलोदकम् ।१०
स्वादितं वि किरेदुन्र् याद्विसगे चाभिरम्यताम् ।
-शेषं पूववदत्रापि कायं वेदविदा पितुः ।११
सपिण्डीकंरणादृध्वे प्रतः पार्वेणभाग् भवेत् ।