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° पुराणं गारुडं वषये सारं विष्णुक्रथा भ्रयम् *
[ संक्षिप्त गरुडपुराणाकु
जलसे एक वार आचमन करनेसे ही शुद्धि हो जाती है।
जिनको यज्ञोपवीत नहीं हुआ है, उनके लिये भी इसी प्रकार
आचमनकी व्यवस्था है।
प्रातःखान, जलदैवत ' ॐ आपो हि ०" आदि मन्त्रोंसे
मार्जन, प्राणायाम, सूर्योपस्थानं एवं गायत्रीमन्त्रका जप प्रतिदिन
अपने अधिकारके अनुसार यथाविधि करना चाहिये।
ॐ आपो ज्योत्ती०' आदि यन्त्र ही गायत्रीमनत्रका
शिरोभाग हैं। इस शिरोभागसे युक्त प्रतिमहाख्याहति एक~
एक बार प्रणव जोड़कर तीनों महाव्याह॒तियोंके साथ
गायत्रीन्वका मानस-जप करते हुए मुख एवं नासिकामों
संचरणशील यायुका नियमन करना ही प्राणायाम है।
प्राणायाम करनेके पश्चात् तीन बार जल देवताके मन््रसे
प्रोक्षणकर प्रतिदिन सायंकाल नक्षत्रदर्शतक पश्चिममुख
बैठकर गायत्रौमन्त्रका जप करे। इसी प्रकार प्रात:ःकालकी
संध्या करके पूर्वमुख होकर गायत्रीमन्त्रका जप करते हुए
सूर्यदर्शनके समयतक स्थिर रहै । उन दोनों संध्याओरिं अपने
गृह्यसुत्रके अनुसार अप्रिहोत्र करे ।
तदनन्तर “मैं अमुक हं" इस प्रकार कहते हुए वृद्धजनों
(गुरु आदि बडे लोगों)-को प्रणाम करे । इसके बाद संयमी
ब्रह्मचारी स्याध्यायके लिये एकाग्रचित्त होकर गुरुकौ सेवा
उनके अधीन सदा दहे । तत्पश्चात् गुरूके द्वारा बुलानेपर
उनके पास जाकर अध्ययन करे { गुरुको स्वयं अध्यापनके
लिये प्रेरित न करे) और भिक्षामें जो कुछ प्राप्त हो, उसे
गुरुके चरणोंमें समर्पित करे ¦ मन, वाणी और शरीरके द्वारा
गुरुके हितकारी कार्योंमें सदा संलग्न रहे।
ब्रह्मचारीको दण्ड, मृगचर्म, यज्ञोपवीत और मूँजमेखलाका
धारण यथाशीघ्र करना चाहिये तथा अपनो जीविकाके लिये
अनिन्दित श्रेष्ठ ब्राह्मणोंके घरसे भिक्षा ग्रहण करनी चाहिये।
भिक्षा ग्रहण करते समय ब्राह्मण, क्षत्रिय एवं वैश्य-वर्णके
ब्रह्मचारीकों क्रमश: आदिमे, मध्यमें तथा अन्तर्मे 'भवति'
जशब्दका प्रयोग करना चाहिये। इसके अनुसार 'भवति
भिक्षा देहि", 'भिक्षां भवति देहि' और “भिक्षां देहि भवति'--
इस प्रकार वाक्यप्रयोग यथाक्रम ब्राह्मण, क्षत्रिय एवं वैश्य
ब्रह्मचारोको करना विहित है। इस वाक्यका अर्थ है-- आप
भिक्षा दें। 'भवतति' यह माताओंके लिये सम्बोधन है।
अश्रिकार्य ( अग्रिहोत्र) करके गुरूकी आच्छसे विनयपूर्वक
आपोउशान'-क्रिया करके सम्मानके सहित उस भिक्षासे
प्राप्त भोज्यान्नको बिना निन्दा किये ही मौन होकर ग्रहण
करता चाहिये । ब्रह्मचर्यक्रतका पालन करते हुए आपत्तिरहित
काले, रोग आदिके अभावर्मे अनेकका अन्न ग्रहण करे
(एक घरका अन्न न ग्रहण करे ) । अपने व्रतका संयमपूर्वक
पालन करता हुआ ज्रह्मण ब्रह्मचारी श्राद्धमे आदरपूर्वक
आहूत होनेपर इच्छानुसार भोजन कर सकता है, किंतु उसे
श्राद्धकाल या अन्य अवसम मधु, मच्च, मांस अथवा
उच्छिष्ट अन्न भोजनके रूपे ग्रहण नहीं करना चाहिये ।
जो विधि-विहित क्रियाओंको सम्पन्न करके ब्रह्मचारीको
वेदकौ शिक्षा प्रदान करता है, वही गुरु" है । जो केवल
यज्ञोपवीत - संस्कार करके ब्रह्मचारीको वेदकी शिक्षा देता
है, वह ' आचार्य" कहा गया है। जो वेदके एक देशका
अध्ययन कराता है, वह " उपाध्याय है। जौ वरण लेकर
यजमानके यज्ञको सम्पन्न करता है, उसे "ऋत्विक्" कहा
जाता है। यथाक्रम ये सभी-- गुरु, आचार्य, उपाध्याय और
ऋत्विक् ब्रह्मचारोके लिये मान्य हैं, किंतु इन सभीसे माता
श्रेष्ठ है।
प्रत्येक वेदके अध्ययनके लिये बारह-बारह वर्षतक
ब्रह्मचर्यव्रवका पालन करना चाहिये। अशक्तावस्थामें प्रत्येक
वेदके अध्ययनके लिये पाँच-पाँच वर्षतक भी ब्रह्मचर्यव्रतका
पालन किया जा सकता है। कुछ लोर्गोका यह भी मत है
कि वेदाध्ययन पूर्ण होनेतक ब्रह्मचर्यत्रतका पालन होना
चाहिये। केशान्त*- संस्कार गर्भसे सोलहवें वर्धय ब्राह्मणकः,
गर्भसे बाईसवें वर्षमे क्षत्रियका तथा गर्भसे चौमीसवें वर्षमें
वैश्यका होना चाहिये ।
१- घोजनके पूरय तथा अनामें एक यार जलसे आचमन करन " आपोऽशान क्रिया" है । इसमें ' अमृतोपस्तरणमसि" इस वाक्यकः प्रयोग
यिहित है ।
२-मन््र एवं ग्राह्मणरूपमें वेदके दो भाग है । पन्ते केवल एक भागका अध्यापन अथया वेदके अद्भमात्रका अध्यापत्र वेदके एक देशका
अध्यापन है।
३-केशान्व- संस्कारसे हौ र्मश्र (दादौ) बत्रणनेका आर्य होता है ।