श्ड्च
+संक्षिप्त मार्कए्डेयपुराण *
5#7४ # # ४४ क #४:&+# ४४४ 66% ४८८6: # # कर्क ४४४४४ ७ न # ४ कक्ष लक भा लाआ कक १२१४ २२ शा 7४७२४ ७ ८ ७ हु
जम्बुद्वीप और उसके पर्वतोंका वर्णन
क्रौष्ठक्िने पूछा--ज्ह्मन्! द्वीप, सपुद्र, पव॑त | इनके पध्यभागमें इलावृत वर्ष है, जो आधे
और वैष कितने हैं तथा उनमें कौन-कौन-सी | चन्द्रमाके आकारमें स्थित है ¦ उसके पूर्वमें भद्राश्व
नदियाँ हैं ? महाभूत (पृथ्वी) और लोकालोककरा और पश्चिममें कैतुपाल वर्ष है। इलावृत चणकं
प्रमाण क्या हैं? चन्द्रमा और सूर्मका व्यास,
परिमाण तथा गति कितनी हैं? महामुने! ये सब
बातें मुझे विस्ता?पूर्वक बत्तलाइये।
मार्कण्डेयजी बोले--ब्रह्मन् | समूची यृथ्वीका |
विस्तार पचास करोड़ थोजन हैं। अब उसके सब
स्थानोंका वर्णन कता हूँ, सुनो। महाभाग | जम्बृट्ठी पसे
लेकर पुष्करद्वीपतक जितने ट्वीपॉकी मैंने चर्चा की
है, उन सबका विस्तार इस प्रकार है। क्रमशः एक
द्वीपसे दूसरा द्वीप दुगुना बड़ा है; इसौ क्रमसे
जा्युद्वी५, प्लक्ष, शाल्मल, कुश, करौ, शाक्र ओर
पृष्करद्वोप स्थित हैं। र क्रमशः लवण, इक्षु, सुरा,
धृत, दही, दूध और जलके समुद्रोंसे घिरे हुए हैं ¦
ये समुद्र भी एकको अपेक्षा दूसरे दुगुने बड़े हैं।
अब मै अम्बूद्वीग्की स्थित्तिका सर्णन करत्ता
हूँ। इसको लंबाई-चौड़ाई एक लाख योजनकरौ ,
| आदि दिशाओंमें स्थित हैं। उनके नाम इस प्रकार
हैं। इसमें हिमवान्, हेपकृर, निषध, मेर, नील,
श्वेत तथा थ्रृज्धी-ये सात वर्षपर्वत हैं। इनमें
मेत तो स्त्रके बीचमें है, उसके सिवा जो नील
और निषध नामक दो और मध्यवर्ती पर्वत हैं, चे
एक-एक लाख योजनतक फैले हुए हैं। निष्धसे
दक्षिणमें तथा नीलसे उत्तरमें जो दो-दो पर्वत हैं,
उनका तिस्तार ऋगशः दूस. दस हजार छोजन
करप है। अर्थात् हेमकृर और श्वे नब्बे-नब्बे
हजार योजनत्क तथा हिमवान् और शृज्ञी अस्सो- :
अस्सो हजार योजनतक फैले हुए हैं। वे सभी
दो-दो हजार योजन ऊँचे और उतने हो चौड हैं।
इस जन््बद्रोपके छः ठर्षपर्वेत समुद्रके भीत्तरतक
प्रवेश किये हुए हैं। बह पृथ्व दक्षिण और उत्तरमें
नीची और बोचमे ऊँची तथा चौड़ी है । जभ्बुद्ठी पके
मध्यभागमें सुवर्णेमव मेरुपर्वत है, जिसकी ऊँचाई
चौरासी हजार वोजर है। वह सोलह हजार योजन
नीचेतक प्रृध्वीमें समाया हुआ रै तथा उसकी
चौड़ाई भी सोलह हजार योजन हो है। बह शराब
(पुरत्रे)-कौं आकृतिका होनेके कारण चोटीकी
ओर बत्तीस हजार योजन चौड़ा है। मेरुपर्व॑तका
रंग पूर्तकी ओर सफेद, दक्षिणकी ओर पीला,
'पश्चिमकी ओर काला और उत्तरकी ओर लाल है।
यह रंग क्रमश: क्राह्मण, वैश्य, शुद्ध तथा क्षत्नियका
है। येरुपर्वतके ऊपर क्रमशः पूर्व आदि दिश ओंम
इन्द्रादि आठ लोकपालोंके निवासस्थान हैं। इनके
तीचे ब्रह्माजीकी सभा हैं। वह सभामण्डप
चौदह हजार योजन कँचा है! उसके नीचे
तिष्कम्भ (आधार) रूपसे चार पर्वत हैं, जो
दस-दस हजार योजन कचे हँ} वे क्रमशः पूर्व
है-- मन्दर, गन्धमादन, विपुल और सुपाश्वं । इन
चागें पर्वतोंके ऊपर चार बड़े-बड़े वृक्ष हैं, जो
ध्नजाकी भाँति उनको शोभा बढ़ाते हैं। मन्दराचलपर
कदम्ब, गन्धमादन पर्वतपर जम्बू, विपुलपर पीपल
तथा सुपाश्वके ऊपर बरगदका महान् वृक्ष है। इन
पर्वतोंका विस्तार ग्वारह -ग्यारह सौ योजनका है।
मैझुके पूर्वभागमें जठर और देबकूट पर्वत हैं, जो
नील शौर निषध पर्वत़तक फैले हुए हैं। निषध
ओर पारियात्र-ये दो पर्वत मेरके पश्चिम भागे
स्थित हैं। पूर्वणाले पर्वतोंकी भाँति ये भी नीलगिरितक
फैले हुए, रहँ । हिपचान् और कैलासपर्वत पेरुके
दक्षिण भागमें स्थित हैं। ये पूर्वसे पश्चिमकी ओर
फैलते हुए #मुद्रके भीतरतक चले गये हैं। इसी
तीन खण्ड दक्षिणम हैं और तीन छण्ड उत्तरे । | प्रकार उसके उत्तर भागमें श्रुद्गवान और जारुधि