है अथर्ववेद संहिता पाग-१
धरती पर अग्निदेव के सम्मुख समस्त प्राणी नमन करते हैं। वे अग्निदेव भी विनप्र हुए भूतो से-समृद्ध होते
हैं। जिस प्रकार धरती पर अग्निदेव के सम्मुख सब विनप्र होते हैं, उसी प्रकार हमें सम्मान देने के लिए हमारे
सामने उपस्थित हुए लोग विनप्र हों ॥१ ॥
८९८. पृथिवी धेनुस्तस्या अगिनिर्धत्सः । सा मेऽग्निना वत्सेनेषमूर्जं कामं दुहाम्।
आयुः प्रथमं प्रजां पोषं रयिं स्वाहा ॥२ ॥
पृथ्वी गौ है और अग्नि उसका बछड़ा है । वह धरती अग्निरूपौ बल्ड़े से (हमें ) अन्न, बल, अपरिमित आयु,
सन्तान पुष्टि और सम्पत्ति प्रदान करे । हम उसे हवि समर्पित करते हैं ॥२ ॥
८९९. अन्तरिक्षे वायवे समनमन्त्स आर्ध्नोत् ।
यथान्तरिक्षे वायवे समनमन्नेवा महयं संनमः सं नमन्तु ॥३ ॥
अन्तरिक्च में अधिष्टाता देवता रूप में स्थित वायुरेव के सम्मुख सब विनम्र होते हैं और वे वायुदेव भी उनसे
वृद्धि को प्राप्त होते है । जिस प्रकार अन्तरिक्ष में वायुदेव के सम्मुख सब विनग्र होते हैं, उसी प्रकार हमें सम्मान
देने के लिए हमारे सम्मुख उपस्थित हुए लोग भी विप्र हों ॥३ ॥
९००. अन्तरिक्षं धेनुस्तस्या वायुर्वत्सः । सा मे वायुना वत्सेनेषमूर्जं कामं दुहाम्।
आयुः प्रथमं प्रजां पोषं रयिं स्वाहा ॥४ ॥
अभिलषित फल प्रदान करने के कारण अन्तरिक्ष गौ के समान है और वायुदेव उसके बछड़े के समान दै ।
वह अन्तरिश्च वायुरूषी अपने बछड़े से (हमे ) अन्न, बल, अपरिमित आयु, सन्तान, पुष्टि और धन प्रदान करे । हम
उसे हवि समर्पित करते हैं ॥४ ॥
९०१ . दिव्यादित्याय समनमन्त्स आर्ध्नोत् ।
यथा दिव्यादित्याय समनमन्नेवा महां संनमः सं नमन्तु ॥५ ॥
चुलोक में अधिपति रूप में स्थित सूर्यदेव के सम्मुख समस्त घुलोक निवासो विनघ्र होते हैं और वे सूर्यदेव
भी उनके द्वारा वृद्धि को प्राप्त करते हैं । जिस प्रकार द्युलोक में सूर्यदेव के सम्मुख सब विनप्र होते हैं, उसी प्रकार
हमें सम्मान देने के लिए हमारे सम्मुख उपस्थित लोग विनम्र हों ॥५ ॥
९०२. झ्यौर्धेनुस्तस्या आदित्यो वत्सः । सा म आदित्येन वत्सेनेषमूर्ज॑ कामं दुहाम् ।
आयुः प्रथमं प्रजां पोषं रयिं स्वाहा ॥६ ॥
इच्छित फल प्रदान करने के कारण द्युलोक गौ के समान है और सूर्यदेव उसके बछड़े के समान है । वह
चुलोक सूर्यरूपी अपने बछड़े के द्वारा (हमें) अन्न- बल, अपरिमित आयु, सन्तान, पुष्टि और धन प्रदान करे, हम
उसे हवि समर्पित करते हैं ॥६ ॥
९०३. दिक्षु चन्द्राय समनमन्त्स आर्ध्नोत् ।
यथा दिक्षु चन्द्राय समनमन्नेवा महयं संनमः सं नमन्तु ॥७ ॥
पूर्व आदि दिशाओं मे अधिष्ठाता देवता रूप प्र स्थित चन्द्रमा के सम्मुख सपरत प्रजाएं विनम्र होती हैं और
चन्द्रलोक भौ उनके द्वारा वृद्धि को प्राप्त होते ह । जिस प्रकार दिशाओं में चन्द्रमा के सम्मुख सब विन्न होते हैं,
उसी प्रकार हमें सम्मान देने के लिए. हमारे सम्मुख उपस्थित लोग बिनम्न हों ॥७ ॥