द्ादशोःउध्याय: १२.१५
६१४. त्वमुत्तमास्योषधे तब वृक्षा5 उपस्तयः । उपस्तिरस्तु सोस्माकं यो अस्माँ२
अभिदासति ॥१०१ ॥
है ओषधे ! आप श्रेष्ठ गुणों से युक्त हो । समीपस्थ वृक्ष हर प्रकार से आपके लिए कल्याणकारी (उपयोगी)
हों । जो हम से ईर्ष्या-द्वेष करने वाले दुर्भावनाओं से प्रसित हैं, वे भी आपके प्रभाव से हमारे अनुगामी हों (हमारे
श्रेष्ठ कार्यों में सहयोग करें) ॥१०१ ॥
६१५. मा मा हि ४ सीज्जनिता यः पृथिव्या यो वा दिव & सत्यधर्मा व्यानद्।
यश्चापश्षन्धा: प्रथमो जजान कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥१०२ ॥
जो जमदौश्वर, पृथिवी के सृजेता, सत्य धर्म के पालकः, दिव्यलोक के रचयिता, आदिपुरुष . संसार के आह्वादक
एवं जल उत्पादक है, उनके अनुशासन के प्रतिकूल होकर हम दुःख न हों हम उनके अनुशासन में रहकर उस
परमेश्वर के प्रति आहुति समर्पित करते है ॥१०२ ॥
६१६. अभ्यावर्तस्व पृथिवि यज्ञेन पयसा सह । वपां ते अग्निरिषितो अरोहत् ॥१०३ ॥
हे भूमे ! यज्ञानुष्ठानों के परिणामस्वरूप होने वाली प्राण पर्जन्य. वर्षा के साध आप हमारे लिए अनुकूल
बनें । प्रजापति की प्रेरणा से अग्निदेव आपके पृष्ठभाग पर प्रतिष्ठित हों ॥१०३ ॥
६१७. अग्ने यत्ते शुक्रं यच्चन्र यत्पूत॑ यच्च यज्ञियम् । तद्देवेभ्यो भरामसि ॥९०४॥
हे अग्निदेव ! आपकी ज्वालारूपौ देह शुक्ल वर्ण के समान कान्तिमान् , चन्द्रमा की किरणों के समान
आह्वादक, ज्योतिस्वरूप, पावन और यज्ञीय कर्मों के उपयुक्त है । उस ज्योतिस्वरूप, प्रशंसनीय देह को हम देवों
के निमित्त हव्य समर्पित करने के लिए प्रदीप्त करते है ॥६०४ ॥
६१८. इषमूर्जमहमित आदमृतस्य योनिं महिषस्य धाराम्। आ मा गोषु विशत्वा तनुषु
जहापि सेदिपनिरापमीवाम्॥॥१०५ ॥
यज्ञ की उत्पत्ति के मूल, अन्न-धृतादि हविष्य को, महत् कामनायुक्त अग्निदेव के लिए उदीची (उत्तर) दिशा
से हम ग्रहण करते हैं । ये सब हमारे समीप आएँ ओर हमारे पत्रादि एवं धेनु आदि पशुओं में प्रविष्ट हों । अन्न के
अभाव से उत्पन्न हुई प्राणघातक विपत्तियों का हम त्याग कःते है ॥१०५ ॥
६१९. अग्ने तव श्रवो वयो महि भ्राजन्ते अर्चयो विभावसो । बृहद्भधानो शवसा
वाजमुक्थ्यं दधासि दाशुषे कवे ॥१०६ ॥
देदीप्यमान, ऐश्वर्यशाली, त्रिकालदर्शी हे अग्निदेव ! यज्ञ की सूचना देने वाला आपका धुप्र विस्तृत प्रकाशमान
होते हुए दिव्यलोक को प्राप्त होता है । आप हविष्रदाता यजमान के लिए शक्ति के साथ यज्ञ के लिए उपयुक्त
अन्न आदि प्रदान करते हैं ॥१०६ ॥
६२०. पायकवर्चा: शुक्रवर्चा 5 अनूनवर्चा ऽ उदियर्षि भानुना । पुत्रो मातरा
विचरश्नुपावसि पृणक्षि रोदसी उभे ॥१०७॥ ॥
हे अग्निदेव ! आप पवित्रता प्रदान करने वाली, उज्ज्वल, सशक्त तेजस्विता से श्रेष्ठ स्थिति को प्राप्त करते
है । सभी ओर विचरणशील होकर संसार का संरक्षण करते है । माता-पिता को रक्षा करने वाले सुपुत्र की भाँति
आप पृथ्वी और चुलोक का पालन करते हैं ॥१०७ ॥