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१६ [ मत्स्य उराण

जो मन्त्र रहित होता है उस बुध पुरुष को यह श्राद्ध विधिपूर्वक करना

` चाहिए ।५६। तीसरा आभ्यृदचिक श्राद्ध होता है जिसको वृद्धि श्राड

के नाम से कहा जाया करता है। उत्सवों के आनन्द सम्भार में तथा

यज्ञ और उद्वाहे आदि के मज्लमय समय में सर्वप्रथम मातृगण का

अभ्यर्चेन करना चाहिए और इसके पश्चात्‌ फिर पितरोंका पृजनकरे ।

है राजन ! इसके अनन्तर मातामहो का पूजन करे और पीछे उसी

भाँति विश्वे देवाओं का अर्चन करना चाहिए ।६०-६१।

प्रदक्षिणोपचारेण दध्यक्षतफलोदक: ।

प्राङ्‌ मुखो निर्वपेत्‌पिण्डान्‌ पूवं याच कुणेयुं तान्‌ ।६२

सम्पन्नमित्यभ्युदये दद्यादध्यं दययोद्द योः ।

युग्मा द्विजातयः पूज्या वस्त्रकातं स्व रादिभिः।६३

तिनाथस्तु यवैः कार्योनान्दिशब्दानुपूर्वकः ।

मा ङ्गल्यानि च सर्वाणिवाचयेद्द्विजपुज़ वे: ।६

एवं शूद्रोऽपि सामान्यवृद्धिश्राद्ध ऽपि सवेदा ।

नमस्कारेण मन्त्रेण कूर्यादामान्नतः सदा ।६५

दान प्रधानः शूद्रः स्यादित्याह भगवानुप्रभुः ।

दानेन सवे कामाप्तिरस्य सञ्जायते यतः ।६६

प्रदक्षिणा के उपचार से दधि-अक्षत-फल और जल केद्वारा पूर्व

दिशा की ओर मुख वाला होकर दुर्वा और कुशा से युक्त. पिण्डों का

निर्वपन करे ।६२। यह श्राद्ध अभ्युदय में सम्पन्नं होता है इसीलिए

दो-दो को अध्यें देना चाहिए । बस्त्र और कात्तस्वर (सुबर्ण) आदि के

- हारा गगम द्विजातियों का पूजन करना चाहिए ।५३। नान्दि शब्दान्‌

पूर्वक तिलार्थ को यवों स ही सम्पन्न करना चाहिए द्विज श्ष ष्ठों के

द्वारा सम्पूर्ण माज़ूल्य का व्यचन करना चाहिए ।६४। इसी भ्रकार से

सामान्य वृद्धि क्षाद्ध में भी सर्वदा शूद्र को भी नमस्कार मन्त्र के-द्वारा

; कच्चे अन्त से ही सदा करना चाहिएं ।६५। भगवान्‌ प्रभु ने -कहा है

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