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श्रीविष्णुपुराण
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यावन्मात्र प्रदेशो तु मैतरेयावस्थितो ध्रुवः ।
क्षयमायाति ताक्त्तु भूमेराभूतसम्प्रवात् ॥ ९७
ऊर्ध्वोत्तरमृषिभ्यस्तु धुवो यत्र व्यवस्थितः ।
एतद्विष्णुपदं दिव्यं तृतीयं व्योघ्नि भासुरम् ॥ ९८
निर्धूतदोषपङ्कानां यतीनां संयतात्मनाम् ।
स्थानं तत्परमं विप्र पुण्यपापपरिक्षये ॥ ९९
अपुण्यपुण्योपरमे _ क्षीणाझेषाप्िहेतव: ।
यत्र गत्वा न न शोचन्ति तद्विष्णोः परम पदम् ॥ १००
धरमधुवादया्ति्न्ति यत्न ते लोकसाक्षिणः ।
तत्साष्ट्त्पन्नयोगेद्धास्तद्विष्णो: परमं पटम् ॥ १०१
यन्रोतमेतओत॑ चल 2०० ८ - ।
भाव्ये च विश्व त्रे : परमं पदम् ॥ १०२
ध योगिना तन्पयात्यनाम् ।
च : परमं पदम् ॥ १०३
यस्मि्रतिष्ठितो भास्वान्येढीभूतः स्व॑ धरुवः ।
धरुवे च सर्वज्योतींषि ज्योतिःपुम्भोमुचो द्विज ॥ ९०४
मेधेषु सङ्गता वृष्टिवृष्टिः सृष्टश्च पोषणम् ।
आप्यायनं च सर्वेषा देवादीनां महामुने ॥ १०५
ततः पोषितास्ते हविर्भुजः ।
वृष्टेः कारणता यान्ति भृतानां स्थितये पुनः ॥ १०६
'एवमेतत्पदं विष्णोस्तृतीयममलतात्मकम् ।
आधारभूतं लोकानां त्रयाणां वृष्टिकारणम् ॥ १०७
ततः प्रभवति ब्रह्मन्सर्वपापहरा सरित् ।
गङ्खा देवाङ्खनाङ्गानामनुलेषनपिञ्जरा ॥ १०८
यामपादाम्बुजाङृष्ठनखस्मोतोविनिर्गताम् ।
विष्णोर्बिभर्ति या भक्त्या ज्िरसाहर्निर ध्रुव: ॥ १०९
ततः सप्तर्षयो यस्याः प्राणायामपरायणा: ।
तिष्ठन्ति वीचिमात्त्रभिरुह्ममानजटा जले ॥ ११०
वार्बोधैः सन्त्यस्याः प्रावितं शशिमण्डलम् ।
भूयोऽधिकतरां कान्तिं वहत्येतदुह क्षये ॥ १११
हे मैत्रेय ! जितने प्रदे भ्रुव स्थित है, पृथिवीसे
लेकर उस प्रदेशपर्यन्त सम्पूर्ण देश प्रर्यकालमें नष्ट हो
जाता टै ॥ ९७ ॥ सप्रर्षियोंसे उत्तर-दिशामें ऊपरकी ओर
जहाँ चव स्थित है बह अति तेजोमय स्थान ही आकारे
विष्णुभगवानका तीसरा दिव्यधाम है ॥ ९८ ॥ हे चिप्र !
पुण्य-पापके क्षीण हो जानेपर दोष-पंकशून्य संयतात्मा
मुनिजनॉका यही परमस्थान है॥९९॥ पाप-पुण्यके
नियृत्त हो जाने वथा देह-प्राप्तिके सम्पूर्ण कारणोंके नष्ट हो
जानेपर प्राणिगण जिस स्थानपर जाकर फिर शोक नहीं
करते वही भगवान् विष्णुका परमपद है॥ १०० ॥ जहाँ
भगनानकी समान ऐश्र्यतासे प्राप्त हुए सोगद्वारा सतेज
दयोकर धर्म ओर धुव आदि लोक-साक्षिगण निवास करते
हैं वही भगवान् बिष्णुक्छ परमपद दै ॥ १०९ ॥ हे मैत्रेय !
जिसमे यह भूत, भविष्यत् और वर्तमान चद्यचर जगत्
ओतप्रोत हो रहा है बही भगवान् विष्णुका परमपद है
॥ १०२॥ जो तल्लीन योगिजनोंकों आकाशमण्डल्में
देदीप्यमान सूर्यके समान सबके प्रकादाकरूपसे प्रतीत
होता है तथा जिसका विवेकत ज्ञानसे ही प्रत्यक्ष होता है
वही भगवान् विष्णुका परमपद है ॥ १०३ ॥ है द्विज !
उस विष्णुपदमें हो सबके आधारभूत परम तेजस्वी धुव
स्थित हैं, तथा धुवजीमें समस्त नक्षत्र, नक्षत्रॉपें येष
और मेरघोमिं वृष्टिं आश्रित है। हे महामुने ! उस वृष्टिसे
ही समस्त सुष्टिका पोषण और सम्पूर्ण देव-सनुष्यादि
प्राणिवोकी पुष्टि होती है॥१०४-१०५॥ तदनन्तर
गौ आदि प्राणियोंसे उत्पन्न दुग्ध और धृत आदिकी
आहतियोसे परितुष्ट अग्रिदेव ही प्राणियोंकी स्थितिके
लिये पुनः वृष्टिके कारण होते हैं ॥ १०६ ॥ इस प्रकार
विष्णुभगवानका यह निर्मल तृतीय लोक (ध्रुव) हो
त्रिलोकीका आधारभूत और वृष्टिका आदिकारण
है॥ (०७ ॥
हे ऋह्मनू! इस विष्णुपदसे ही देवाड़्नाओंके
अंगरागसे पाण्डुस्वर्ण हुई-सो सर्वपापापह्ारिणी श्रीगड्जाजी
उत्पन्न हुई हैं॥१०८॥ विष्णुभगयानफ़े चाम
'चरण-कपलके अँगूठेके नखरूप स्लोतसे निकली हुई उन
गङ्गःजीको ध्रुव दिन-रात अपने मस्तकपर धारण करता
चै ॥ १०९ ॥ तदनन्तरं जिनके जलमें खड़े होकर
प्राणायाप-पगायण सपर्षिगण उनको तरंगभंगीरो
जटाऊल्मपके कम्पायमान होते हुए, अघमर्षण-मन्लका
जप करते हैं तथा जिनके विस्तृत जलसमृहसे आंछ्राक्ति