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काए्ड-१५ सूक्त-२ २

[ इनछारेड और अल्ट्रावायलेट किरणों से रोगों के उपचार की विधि तो विज्ञान के हाथ लग गयी है, भावनात्मक परिष्कार

की प्रक्रिया अधी शोध का विषय है। ध्यान योग के क्रम ये विधिन्न रंगों के ध्यान से मानसिक प्रवृत्तियों के उपचार की प्रक्रिया

योग विद्या में अवश्य उपलब्ध है । |

[२- अध्यात्म-प्रकरण सूक्त (द्वितीय पर्याय ) ]

[ ऋषि- अथां । देवता- अध्यात्म अथवा व्रात्य । एन्द्‌- साम्नी अनुष्टुप, २, १६, २२ सामनी त्रिष्टप्‌, ३

द्िपदार्षो पंक्ति, ४, १८, २४ द्विपदा ब्राह्मी गायत्री, ५, १३, १९, २५ द्विपदार्ची जगती, ७, १४(२) २०८२),

२७ पदपंक्ति, ८, १४(३), २०८३). २८ त्रिपदा प्राजापत्या वष्टु, १० एकपदोष्णिक ११ द्विपदार्षी भुरिक्‌

ष्प्‌, १२ आषीं परानुष्टप, १४(१) साम्नी पंक्ति, १७ द्विपदा विराट आर्षी पंक्ति, २० आसुरी गायत्री, २३

निचत्‌ आर्षी पंक्ति ।]

३९३९. स उदतिष्ठत्‌ स प्राचीं दिशमनुव्यचलत्‌ ॥१ ॥

वह (व्रात्य) उन्नत हुआ और प्रगति मार्ग की प्रतीक पूर्व दिशा कौ ओर चल दिया ॥१ ॥

३९४०. तं बृहच्च रथन्तरं चादित्याश्च विश्वे च देवा अनुव्य चलन्‌ ॥२ ॥

उसके पीछे बृहत्साम, रथन्तर साम, आदित्यगण तथा सभी दैवौ शक्तियाँ चल पड ॥२ ॥

३९४१. बृहते च वै स रथन्तराय चादित्येभ्यश्च विश्ले भ्यश्ष देवेभ्य

आ वृश्चते य एवं विद्वांसं व्रात्यमुपवदति ॥३ ॥

जो मनुष्य ज्ञानवान्‌ वात्य (वतचारी) को अपमानित करते है वे बृहत्‌ , रथन्तर आदित्यगण तथा समस्त

देवताओं के प्रति ही अवज्ञा- अवहेलना करते हैं ॥३ ॥

३९४२. बृहतश्न वै स रथन्तरस्य चादित्यानां च विश्वेषां च

देवानां प्रिवं धाम भवति तस्य प्राच्यां दिशि ॥४॥

जो उस (वात्य) का) आदर करते हैं । वे बृहत्‌ , रथन्तर आदित्यदेवों तथा समस्त देवशक्तियों की प्रिय पूर्व

दिशा में अपना प्रियधाम बनाते हैं ॥४ ॥

३९४३. श्रद्धा पुश्चली मित्रो मागथो विज्ञानं वासोऽहरुष्णीषं

रात्री केशा हरितौ प्रवर्तौ कल्मलिर्पणिः ॥५ ॥

उसके लिए श्रद्धा पुंश्चली (खी रूप) मित्र (सूर्य मागधरूप स्तुति करने योग्य) , विज्ञान लज्जा निवारक वख

रूप , दिन शिरोवस् (पगड़ी) रूप, रात्रि केश (बालों के) समान, सूर्य किरणें कर्णकुण्डल (आभूषण रूप) तथा

आकाशीय तारागण मणिमुक्ताओं के समान होते है ॥५ ॥

३९४४. भूतं च भविष्यच्च परिष्कन्दौ मनो विपथम्‌ ॥६ ॥

अतीत ( भूत ) और भविष्यतकाल ये इसके परिष्कन्द ( संरक्षक) होते है तथा मन जीवन-संग्राम रथ

के समान होता है ॥६ ॥

३९४५. मातरिश्वा च पवमानश्च विपथवाहौ वातः सारथी रेष्मा प्रतोदः ॥७ ॥

मातरिश्वा (शास) ओर पवमान (उच्छवास) ये दो इसके रथ के घोडे, प्राणवायु सारथि तथा रेष्मा (वायु), उसका

चाबुकरूप होता है ॥७ ॥

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