देवराजसे बद्र लेनेकी पूरी झक्ति रखता था, तथापि
उस महाबलीने पुनः तप करनेका ही निश्चय किया।
उसका संकल्प जानकर ब्रह्माजी वहाँ आये और उससे
पूछने छूगे--'बेटा ! तुम फिर किसलिये तपस्या
करनेको उद्यत हुए हो ?' वज्ाङ्गने कहा--'पितामह !
आपकी आज्ञा मानकर समाधिसे उठनेपर मैंने देखा--
इच्धने वराङ्गीको बहुत त्रास पहुँचाया है; अतः यह मुझसे
ऐसा पुत्र चाहती है, जो इसे इस विपत्तिसे उवार दे।
दादाजी ! यदि आप मुझपर सन्तुष्ट हैं तो मुझे ऐसा
पुत्र दीजिये ।'
ब्रह्माजी बोले-- वीर ! ऐसा ही होगा । अब तुम्हें
तपस्या करनेकी आवश्यकता नहीं दै । तुम्हारे तारक
नामका एक महाबली पुत्र होगा ।
ब्रह्माजीके एेसा कहनेपर दैत्यराजने उन्हें प्रणाम
किया और वनम जाकर अपनी रानीको, जिसका हदय
दुःखी था, प्रसन्न किया । वे दोनों पति-पत्नी सफल-
मनोरथ होकर अपने आश्रमम गये । सुन्दरी वराङ्गी
अपने पतिके द्वारा स्थापित किये हुए गर्भको पूरे एक
हजार वर्षोंतक उदरमें ही धारण किये रही । इसके बाद
उसने पुत्रको जन्म दिया। उस दैत्यके पैदा होते ही सारी
पृथ्वी डोलने लगी--सर्वत्र भूकम्प होने लगा।
महासागर विक्षुब्ध हो उठे । वराङ्गी पुत्रको देखकर हर्षसे
भर गयी । दैत्यराज तारक जन्मत ही भयंकर पराक्रमी हो
गया । कुजम्भ और महिष आदि मुख्य-मुख्य असुरोनि
मिलकर उसे राजाके पदपर अभिषिक्तं कर दिया ।
दैत्योका महान् साम्राज्य प्राप्त करके दानवश्रेष्ठ तारकने
कडा-- "महाबली असुरो और दानवो ! तुम सब लोग
मेरी बात सुनो। देवगण हमल्त्रगोके वका नादा
करनेवाले हैँ । जन्मगतं स्वभावसे ही उनके साथ हमारा
अटूट वैर बढ़ा हुआ है। अतः हम सब लोग
देवताओंका दमन करनेके लिये तपस्या करेंगे ।'
पुलस्त्यजी कहते है-- राजन् ! यह सन्देश
सुनाकर सबकी सम्मति ले तारकासुर पारियात्र पर्वतपर
चला गया और वहाँ सौ वर्षौतक निराहार रहकर, सौ
चवाकर तथा सौ वर्तक सिर्फ जल पीकर तपस्या
करता रहा। इस प्रकार जब उसका शरीर अत्यन्त दुर्बल
और तपका पुञ्ज हो गया, तब ब्रह्माजीने आकर कहा---
"दैत्यराज ! तुमने उत्तम ब्रतका पालन किया है, कोई वर
मगो ।' उसने कहा--'किसी भी प्राणीसे मेरी मृत्यु न
हो ।' तव ब्रह्माजीने कहा-- 'देहधारियेकि लिये मृत्यु
निश्चित है; इसकतिये तुम जिस किसी निमित्तसे भी,
जिससे तुम्हें भय न हो, अपनी मृत्यु माँग लतो ।' तब
दैत्यराज तारकने बहुत सोच-विचास्कर सात दिनके
बालकसे अपनी मृत्यु माँगी। उस समय वह महान्
असुर घमंडसे मोहित हो रहा था। ब्रह्माजी 'तथास्तु'
कहकर अपने धामको चले ओर दैत्य अपने घर ल्त्ैट
गया। वहाँ जाकर उसने अपने मन्त्रियोंसे कहा--
"तुमल््ेग शीघ्र ही मेरी सेना तैयार करो ।' असन नामक
दानव दैत्यराज तारकका सेनापति था। उसने स्वामीकी
बात सुनकर बहुत बड़ी सेना तैयार की। गम्भीर स्वरमे
रणभेरी बजाकर उसने तुरत ही बड़े-बड़े दैत्योंको
एकत्रित किया, जिनमें एक-एक दैत्य प्रचण्ड पराक्रमी
होनेके साथ ही दस-दस करोड़ दैत्योंका यूथपति था।
जम्भ नामक दैत्य उन सबका अगुआ था और कुजम्भ
उसके पीछे चलनेवात्प्र था। इनके सिवा महिष, कुञ्जर,
मेघ, कालनेमि, निमि, मन्थन, जम्भक और शुम्भ भी
प्रधान थे। इस प्रकार ये दस दैत्यपति सेनानायक थे ।
उनके अतिरिक्त और भी सैकड़ों ऐसे दानव थे, जो
अपनी भुजाऑपर पृथ्वीको तोलनेकी दाक्ति रखते थे।
दैत्योमि सिंहके समान पराक्रमी तारकासुरकी वह सेना
बड़ी भयङ्कर जान पड़ती धी । बह मतवाले गजराजो,
घोड़ों और रथोंसे भरी हुई थी । पैदल्लॉंकी संख्या भी
बहुत थी ओर सेनामें सब ओर पताका फहरा रही थीं।
इसी बीचमें देवताओंके दूत वायु असुर्येकमें
आये और दानव-सेनाका उद्योग देखकर इन्द्रको उसका
समाचार देनेके लिये गये। देवसभामें पहुँचकर उन्होंने
देवताओंके बीचमें इस नयी घटनाका हाल सुनाया । उसे
सुनकर महायाहु देवराजने आँखें बंद करके बृहस्पतिजीसे