६८ | [ ब्रह्माण्ड पुराण
अलंकारास्तु वक्तव्याः स्वैः स्वैवंर्णेः प्रहेतवः ।
संस्थानयोगैश्च तथा सदा नाटचा्वेक्षया ॥२
वाक्याथंपदयोगार्थरलंकारेश्न पूरणम् ।
पदानि गीतकस्याहु: पुरस्तात्पृष्टतोऽथ वा ॥३
स्थातोनित्रीनरो नी इडीमनः कटशिरस्थया ।
एतेषु त्रिषु स्थानेषु प्रवृत्तो विधिरुत्तमः ।४
चत्त्वारः प्रकृतौ वर्णाः प्रविचारश्चतुविधरा ।
विकल्पमष्टधा चैव देवाः षोडणधा विदुः ।५
सृष्टो वर्ण: प्रसंचारी तृतीयमवरोहणम् ।
आरोहणं चतुर्थ तु वर्णं व्णंविदो विदुः ।।६
तत्कः संचरस्थायी संचरस्तु चरोऽभवत् ।
अवरोहणवणनिामवरोहं विनिदिशेत् ।।७
श्री सूतजी ने कहा--मैं अपने पूर्व में होने वाले आचार्यों के मत को
समझ कर क्रम से आरम्भ से अन्त तक बताऊँगा जो भी अलंकार परम
प्रसिद्ध हैं उनको मुझ से आप लोग अब श्रवण कीजिए ।१। जो अपने-अपने
वर्णो से प्रकृष्ट हेतुओं वाले हैं वे ही अलंकार बताने चाहिए । और जो नादूय
आदि के अवेक्षण से संस्थान योगों से सदा समन्वित हुआ करते हैं ।२। जहाँ
पर वाक्य-अर्थ-पद-योग-अर्थ और अलंकारों से पूति होती है वे गीत के
पद आगे अथवा पीछे कहे गये हैं ।३। स्थातो नित्रीनर-नीड्डीमनः कण्ठ और
शिर में स्थित-इन तीन स्थानों में जो विधि है वहो उत्तम होती है ।४॥
प्रकृति में चार वर्ण हैं और प्रविचार के चार-प्रकार के हैं। आठ प्रकार से
विकल्प है । इसको देव १६ प्रकार का जानते हैं।५। वर्ण प्रसंचारी सृजन
किया गया है । तीसरा अवरोहण होता है । चौथा आरोहण है-इस तरह
से वर्णो के ज्ञाता वर्ण को जानते हैं ।६। वहाँ पर संचर स्थायी है और संचर
तो चर होगया है । जो अवरोहण वर्ण हैं उनका अवरोह विनिदिष्ट करना
चाहिए ।७।
आरोहणेन वारोहान्वर्णान्वर्ण विद्रो विदुः ।
एतेषामेव वर्णानामलंकारान्निबोधत ।।८