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ब्राह्मपर्व ]

* सपोकि विषका वेग, फैलाव तथा सात धातुओंपें प्राप्त विषके रूक्षण «

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लगती है, कण्ठ अवरुद्ध हो जाता है, श्रासकी गति बढ़ जाती

है, झरीरका रंग पीला पड़ जाता है। ऐसी अवस्थाको

कालसर्पसे काटा हुआ समझना चाहिये। उसकी मृत्यु आसत्न

समझनी चाहिये।

घाव फूल जाय, नीले रेगका हो जाय, अधिक पसीना

आने लगे, नाकसे बोलने लगे, ओठ लटक जाय, हृदयमें

कम्पन होने लगे तो कालसर्पसे काटा हुआ समझना चाहिये।

दाँत पीसने लगे, नेत्र उलट जायै, लंबी श्वास आने लगे, ग्रीवा

लटक जाय, नाभि फड़कने लगे तो कालसर्पसे काटा हुआ

जानना चाहिये। दर्पण या जके अपनी खाया न दीखो, सूर्य

तेजहीन दिखायी पड़े, नेत्र त्प्ल हो जायै, सम्पूर्ण झरीर कष्टके

कारण काँपने लगे तो उसे कालसर्पसे काटा हुआ समझना

चाहिये, उसकी श्ौघ्र ही मृत्यु सम्भाव्य है ।

अष्टमी, नवमी, कृष्णा चतुर्दशी और नागपद्धमीके दिन

जिसको साँप काटता है, उसके प्रायः प्राण नहीं यचते । आर्द्री,

आद्रव, मघा, भरणी, कृत्तिका, विटाखा, तीनों पूर्वा, मृल,

स्खती और इातभिषा नक्षत्रम जिसको साँप काटता है वह भी

नहीं जौता । इन नक्षत्रॉंमें विष पीनेवाला व्यक्ति भी तत्काल मर

जाता है। पूर्वोक्त तिथि और नक्षत्र दोनो पिल जायेँ तथा

खण्डहरमें, क्मज्ञानमें और सूखे वृक्षके नीचे जिसे साँप काटता

है वह नहीं जीता ।

मनुष्यके झरीरमें एक सौ आठ मर्म-स्थान हैं, उनमें भी

जल अर्थात्‌ ललाटकी हड्डी, आँख, भ्रूमध्य, वस्ति,

अप्डकोशका ऊपरी भाग, कक्ष, कंधे, हृदय, वक्षःस्थल,

तालु, यदौ और गुदा--ये बारह मुख्य मर्म-स्थान हैं। इनमें

सर्प काटनेसे अथवा दास्राघात होनेपर मनुष्य जीवित नहो

रहता।

अब सर्प काटनेके बाद जो बैच्यको बुलाने जाता है उस

दूतका लक्षण कहता हूँ। उत्तम जातिका हीन वर्ण दूत और

हीन जातिका उत्तम वर्ण दूत भी अच्छा नहीं होता । वह दूत

हाथमे दंड लिये हुए हों, दो दूत हों, कृष्ण अथवा रक्तबस््न

पहने हों, मुख दके हों, सिरपर एक वस्र लपेटे हो, आरीरमें

तेल लगाये हो, केदा खोले हो, जोस्से बोलता हुआ आये,

हाथ-पैर पौरे तो ऐसा दुत अत्यन्त अशुभ है। जिस रोगीका

दूत इन लक्षे युक्त वैद्यके समीप जाता है, वह रोगी

अवइय ही मर जाता है ।

कञ्यपजी बोले--गौतम ! अब मैं भगवान्‌ दिक्के

द्वारा कथित नागोंकी उत्पत्तिके विषयमें कहता हूँ । पूर्वकालमें

ब्रह्माजीने अनेक नागो एवं ग्रहोंकी सृष्टि की । अनन्ते नाग सूर्य,

वासुकि चन्द्रमा, तक्षक भौम, कर्कोटक बुध, पद्म वृहस्पति,

महाप शुक्र, कुछिक ओर शंखपाल शनैश्वर ग्रहके रूप है ।

रविवास्के दिन दसवां और चौदहवां यापार्थ, सोमवारकों

आठवाँ और बारहवाँ, भौमवारको छटा और दसवां,

बुघवारको चवं. बृहस्पतिको दूसरा और छटा, झुक्रक्रो चौथा,

आठवाँ और दसवां, इानिवारको पहिल्म, सोलहवाँ, दूसरा

ओर्‌ बारहवा प्रहरार्ध अनुभ है। इन समयोमे सर्पके काटनेसे

व्यक्ति जीवित नहीं रहता ।

(अध्याय ३४)

स्पोकि विषका वेग, फैलाब तथा सात धातुओमें प्राप्त विषके छक्षण और उनकी चिकित्सा

कहयपजी बोल्ले--गौतम ! यदि यह ज्ञात हो जाय कि

सर्पने अपने यमदूती नामक दाढ़से काटा है तो उसको

चिकित्सा न करे। उस व्यक्तिको मरा हुआ ही समझे । दिने

और यतमे दूसरा ओर सोलहवांँ प्रहरार्ध साँपोंसे सम्बन्धित

जागोदय नामक येत कहीं गयी है। उसमें साँप कारे तो

कारके द्वारा काटा गया समझना चाहिये और उसकी चिकित्सा

नहीं करनी चाहिये। पानौमें बाल डुबोनेपर और उसे उठानेपर

यालके अग्रभागसे जितना जल गिरता है, उतनी हो माषे

विष सर्प प्रविष्ट कराता है। वह विष सम्पूर्ण शरीरमें फैल जाता

है। जितनी देरमें हाथ पसारना और समेटना होता है, उतने ही

सूक्ष्म समयमे काटनेके बाद विष मस्तकर्मे पहुँच जाता है।

हवासे आगको रूपट फैल्नेके समान रक्तमें पहुँचनेपर विषको

बहुत वृद्धि हो जाती है। जैसे जलमें तेलकी वद फैल जातौ

है, पैसे ही त्वचामें पहुँचकर विष दून हो जाता है। रक्तपे

‡-गरहोपनिषद्‌ एवं ताक्ष्योपनिषदसे यमदूतकः ताससे यै मन्त्र पद गये है, यहाँ मध्यम नियमका वर्णन है। सैसे भगवत्कृपासे कुछ भो

अस्ाध्य तहीं है ।

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