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६.३ । यजुर्वेद संहिता

२२०. माहिर्भू्मा पृदाकुर्नमस्तऽ आतानानर्वा प्रेहि। घृतस्य कुल्या5 उप ऋतस्य

पथ्या ऽअनु ॥१२॥

सत्कमो से सुख का विस्तार करने वाले हे यज्ञ के साधनभूत ! (स्वर आरि उपकरण) सर्प आदि हिंसक

प्राणियों की भौति आप क्रोधी और प्राणनाशक न हों । हे याजक ! निर्वाधरूप से प्रवाहित जलधार की भाति

आप शाश्वत सत्य के मार्ग पर चले, हम आपका सम्मान करते ह ॥१२॥

२२१. देवीरापः शुद्धा वोद्व सुपरिविष्टा देवेषु सुपरिविष्टा वयं परिवेष्टारो भूयास्म॥

जल जैसे सरस दिव्य गुण से सम्पन्न, स्वाभाविक रूप से शुद्ध हे देवियो ! आप देवताओं कौ

तृप्ति के लिए, उत्तम पात्र में स्थित हविष्यान्न को ग्रहण करे । देवताओं को आहुतियाँ देते हुए हम भो इस

देक-कार्य में संलग्न होते हैं ॥१३ ॥

२२२. वाचं ते शुन्धामि प्राणं ते शुन्धामि शुन्धामि शत्रं ते शुन्धामि नाभिं ते

शुन्धामि मेदं ते शुन्धामि पायुं ते शुन्धामि शुन्धामि ॥१४॥

हे याजक ! हम आपके प्राण, वाणी, दृष्टि, श्रोत्र, नाभि, जननेद्िय, गुदा आदि को शुद्ध करते हैं । इस प्रकार

आपके चरित्र का शोधन कर उसे यज्ञानुकूल बनाते हैं ॥१४ ॥

२२३. मनस्त 5 आप्यायतां वाक्त 5 आप्यायतां प्राणस्तऽ आप्यायतां चक्षुस्त ऽ

आप्यायताशशरोत्रं तऽ आप्यायताम्‌ । यत्ते करूरं यदास्थितं तत्त 5 आप्यायतां निष्ट्यायतां

तत्ते शुष्यतु शमहोभ्यः । ओषधे त्रायस्व स्वधिते मैन ४ हि ४४ सीः ॥१५॥

हि याजक ! आपके मन, वाणी और प्राण उत्कर्ष को प्राप्त करे । आपके नेत्र एवं कर्णं कल्याणकारी शक्तियों

से संयुक्त रहे । (यज्ञीय पशुओं के प्रति) आपकी क्रूरता शांत हो तथा जो स्वभाव की स्थिरता है, बह दृढ़ता को

प्राप्त हो । आपके समस्त आचरण सदैव सुखदायी हों हे ओषधे ! इनकी रक्षा करे और इन्हें नष्ट होने से बचार्णं ॥

२२४. रक्षसां भागोसि निरस्त. रक्ष ऽइदमह ४. रक्षोभि तिष्ठामीदमह रक्षोव बाध

इदमह श- रक्षोधमं तमो नयामि । धृतेन द्यावापृथिवी प्रोर्णुवाथां वायो वे

स्तोकानामग्निराज्यस्य वेतु स्वाहा स्वाहाकृते ऊरध्वनभसं मारुतं गच्छतम्‌ ॥१६ ॥

हे परित्यक्त तृण ! तुम (दृष्टकर्मा) विनाशक तत्वों के सहभागी हो । इसलिए तुम्हें (यज्ञ से) दूर करते है ।

दुष्ट स्वभाव वाले तुष तिरस्कृत करते हुए प्रतिबन्धित कर, पतन-गर्त में पहुँचाते हैं व्यवहार के सृक्ष्मतप पक्ष

को जानने वाले, हे याजक ! आपके द्वारा दिये जाने वाले अर्घ्य के जल से पृथ्वी और चुलोक परिपूर्ण हों आपके

द्वारा समर्पित धृत आदि हविष्यात्र अभि को प्राप्त हों तथा वायुभूत होकर, आकाश में भर जाएँ. ॥१६ ॥

२२५. इदमापः प्र वहतावद्यं च मलं च यत्‌। यच्चाभिदुद्रोहानृतं यच्च शेपे अभीरुणम्‌ ।

आपो मा तस्मादेनसः पवमानश्च मुज्वतु ॥९७॥ ।

हे जलदेवता ! आप जिस प्रकार शरीरस्थ मलों को दूर करते हैं, उसी प्रकार याजक के, जो भी ईर्ष्या, देष

असत्यभाषण, मिथ्यादोषारोपण आदि निन्दनौय कर्म हैं, (आप) उन सत्र दोषों को दूर करे । जल एवं वायु अपने

प्रवाह से पवित्र करके, हमें यज्ञीय प्रयोजन के अनुरूप बनाएँ ॥१७ ॥

२२६. सन्ते मनो मनसा सं प्राणः प्राणेन गच्छताम्‌ । रेडस्यग्नष्टवा श्रीणात्वापस्त्वा

सपरिणन्वातस्य त्वा ध्राज्यै पूष्णो रध्श्हया ऊष्मणो व्यथिषत्‌ प्रयुतं देषः ॥१८ ॥

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