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मं० १ सू० य ६५

५४४. वच्यन्ते वां ककुहासो जूर्णायामधि विष्टपि । यद्रा रथो विधिष्यतात्‌ ॥३ ॥

है अश्विनीकुमारो ! जव आपका रथ पक्षियों की तरह आकाश में पहुँचता है, तव प्रशंसनीय स्वर्गलोक

में भी आप के लिये स्तोत्रों का पाठ किया जाता है ॥३ ॥

५४५. हविषा जारो अपां पिपर्ति पपुरिर्नरा । पिता कुटस्य चर्षणिः ॥४ ॥

हे देवपुरुषो ! जलो को सुखाने वाले, पिता रूप, पोषणकर्ता, कार्यद्रष्टा सूर्यदेव (हमारे द्वारा प्रदत्त) हवि

से आपको संतुष्ट करते हैं, अर्थात्‌ सूर्वदेव प्राणिमात्र के पोषण के लिये अनादि पदार्थ उत्पन करके प्रकृति के

विराट यज्ञ में आहुति दे रहे हैं ॥४ ॥

५४६. आदारो वां मतीनां नासत्या मतवचसा । पातं सोमस्य धृष्णुया ॥५ ॥

असत्वहीन्‌, मननपूर्वक वचन बोलने वाते है अश्विनीकुमारो ! आप अपनी वुद्धि को प्रेरित करो वाले एवं

संघर्ष शक्ति बढ़ाने वाले इस सोमरस का पान करें ॥५ ॥

५४७. या न: पीपरदश्चिना ज्योतिष्मती तमस्तिर:। तामस्मे रासाथामिषम्‌॥६ ॥

हे अश्विनीकुमारो ! जो पोषक अन्न हमारे जीवन के अन्धकार को दूर कर प्रकाशित करने वाला हो, वह

हमें प्रदान करें ॥६ ॥

[अन में दो गुण हेते हैं। १-शागीरिक पोषण २-प्रवृत्तियों का पोषण। कहावत है-'जैसा साये अन्नु वैसा बने मन ।

कुसं॑स्कार युक्त अन से, कुसंस्कारी यन वनने से जीवन अंधकारयय वन्ता है। इसलिये पोषण के साथ यज्ञीययाव - साम्पल

सुसंस्कार युक्त अन के लिये कामना की गयी है ।]

५४८. आ नो नावा मतीनां यातं पाराय गन्तवे। युझ्ञाधामश्चिना रथम्‌ ॥७ ॥

हे अश्विनीकुमारो ! आप दोनों अपना रथ नियोजितकर हमारे पास आये । अपनी श्रेष्ठ बुद्धि से हमें दुःखों

के सागर से पार ले चलें ॥७ ॥

५४९. अरित्र वां दिवस्पृथु तीर्थे सिन्धूनां रथ: । धिवा युयुज्र इन्दवः ॥८ ॥

है अश्विनीकुमारों आपके आवागमन के साधन द्युलोक (कौ सीमा) से भी विस्तृत हैं । (तीनों लोकों में

आपकी गति है ।) नदियों, तीर्थ प्रदेशों में भी आपके साधन हैं, (पृथ्वी पर भी) आपके लिये रथ तैयार है । (आप

किसी भी साधन से पहुँचने में सपर्थ है) आप के लिये यहाँ विचारयुक्त कर्म द्वारा सोमरस तैयार किया

गया है ॥८ ॥

५५० , दिवस्कण्वास इन्दवो वसु सिन्धूनां पदे। स्वं व्रि कुह धित्सथः ॥९ ॥

कण्व वंशज द्वारा तैयार सोम दिव्यता से परिपूर्ण है । नदियों के तट पर ऐश्वर्य रखा है । हे अश्विनीकुमारों !

अब आप अपना स्वरूप कहाँ प्रदर्शित करना चाहते हैं ? ॥९ ॥

५५१. अभूदु भा उ अंशवे हिरण्यं प्रति सूर्य:। व्यख्यज्जिह्वयासितः ॥१० ॥

अमृतमयी किरणों वाते ये ! अपनी आभासे प्रकट हो रहे है । इसी समय श्यामल

अग्निदेय, ज्वालारूप जिड्डा से प्रकाशित हो चुके वल । है अश्विनीकुमारो ! यही आपके शुभागमन

का समय है ॥१० ॥

५५२. अभूदु पारमेतवे पन्था ऋतस्य साधुया + अदर्शि वि खुतिर्दिव: ॥११॥

द्युलोक से अंधकार को पार करती हुई, विशिष्ट प्रभा प्रकट होने लगी है, जिससे यज्ञ के मार्ग अच्छी तरह से

प्रकाशित हुए है । अतः हे अश्विनीकुमारो ! आपकर आना चाहिये ॥११ ॥

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