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क्र 4५

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इच्तारका अर्थ है नित्यसुखे र्वं

आनन्द, इकारका अर्थं है पुरुष और

क्कारका अर्थ है अमृतस्वरूपा शक्ति । इन

सबका सम्मिलित रूप ही शिव कहलाता

है । अतः इस रूपमे भगवान्‌ शिवको अपना

आत्मा मानकर उनकी पूजा करनी चाहिये;

अतः पहले अपने अङ्गोमिं भस्म मले । फिर

ल्क्माटयें उत्तम त्रिपुण्ड धारण करे)

पूजाकालसें सजल भस्मका उपयोग होता है

और ड्ष्यशुखिके लिये निर्जल भभ्मका ।

गुणातीत परम शिव राजस आदि सविकार

गुणका अबरोध करते हैं--दूर हटाते हैं,

इसल्ये चे सरके गुरुरूपका आश्रय लेकर

स्थित हैं। गुरु क्रिश्ासी शिष्योंके तीनों

ही पूजा है । गुरुके उपयोगसे वचा हुआ सारा

पदार्थ आत्पदयुद्धि करनेवाला है।

गुरुकी आज्ञाके निना उपयोगमें लाया हुआ

सब्र कुछ वैसा ही है, जैसे चोर चोरी करके

त्रयी हुई वस्तुका उपयोग करता है। गुरुसे

भी विदोष ज्ञानव्रान्‌ पुरुष सिल जाव तो उसे

छिये साध्य पुरुषार्थ है। अत्तः जो विशेष

ज्ञानवान्‌ है, यही जीवको उस बन्धनसे ददा

सकता है।

जन्म और गरणरूय दन्द्रकों भगयान्‌

ज्िवकी मायाने ही अर्पित किया है। जो इन

जैनोंकों झिवकी भ्रायाक्रो ही अर्पित कर

देता है, बह फिर झरीरके बन्धने नहीं

पड़ता । जबतक दारीर रहता है, तबरतक जो

क्रियाके हीं अर्थोन चै, खह जीव बद्ध

करतात है ! स्थूल, सुषम और कास्ण--

तीनों हारीरोौको वनम कर्‌ छेनेपर जीखका

क्ष हो जाता है, ऐसा ज्ञानी पुर्षोंका कथन

है। पायाचक्रके निर्माता भगवान्‌ हिच ही

परम कारण हैं। वे अपनी मायाके दिये हुए

दन्दरका स्वयं ही परिमार्जन करते हैं। अतः

एक*एकका अनुष्लान

करता रहे। ऐश्वर्य, दिव्य हारीरकी प्राप्ति,

ज्ञानका उदय, अज्ञानकों निवारण और

भगवान्‌ शिवके सामीष्यका लाभ--ये

मक्त क्रिया अदिते कत्तं हैं। निष्काम

कर्म करनेसे अज्ञानका निवारण हो जानेके

कारण दिवश्यक्त पुरूष उसके यथोक्त

फलको पाता है। शिवभक्त पुरुष देसल,

काल, झरीर और धनके अनुसार वथायोम्य

क्रिया आदिका अनुष्ठान करे । न्यायोपार्जिति

उत्तम घनसे निर्वाह करते हुए विद्धान्‌. पुरूष

'दिवके स्थानमें निवास करे । जीवर्हिसा

आदिते रहित और अत्यन्त क्लेशशुन्य जीवन

चिताते हुए पञ्चाशररे-मन्त्रके जपसे

अभिमन्त्रित अन्न और जलको सुखस्वरूप

माना गया है अथवा कंते हैं कि दरिद्र

पुरुषके लिये भिक्षासे श्राप हुआ अन्न ज्ञान

देनेवाला होता है। दिवेभक्तको भिक्षात्र

ऋष ह्ये तो जह शिकभक्तिको ददात कै!

शिवयोगी पुरुष भिशषान्नको झाम्मुसत्र कहते

हैं। जिस किसी भी उपायत जहाँ-कहीं भी

भूतलपर शुद्ध अन्नका भोजन करते हुए सदा

सौनभावसे रहे और अपने साघनका रहस्य

किसीपर प्रकट न करे । भक्तोंके समक्ष ही

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