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अध्याय १९ ]

अमृतात्मा शिवो नित्यो वरेण्यो वरदः प्रभु:।

धनदः प्राणदः श्रेष्ठः कामदः कापरूपधृक्‌ ॥ १२

तरणिः शाश्वत: शास्ता शास्त्रज़स्तपन: शयः ।

वेदगर्भ विभुरवीरेः शान्तः सावित्रिवा्भः ॥ १३

ध्येयो विश्वेश्वरों भर्ता लोकनाथो पहेश्वरः।

महेन्द्रो वरूणो धाता विष्णुरग्रिर्दिबाकर:॥ १४

एतैस्तु नामभिः सूर्य: स्तुतस्तेन महात्मना।

उवाच विश्वकर्माणं प्रसन्नो भगवान्‌ रचि: ॥ १५

श्रपिमारोप्य पाभत्र मण्डल मम शातय।

विक्त १०८ कोते भका सूर्यका सन्‌ दप १०८ नामोंसे भगवान्‌ सूर्यका स्तवन

४५

७६. योगज्ञः -- भगवन्‌ श्रोहरिसे कर्मयोगका ज्ञान प्रास

करके उसका मनुछो उपदेश करनेवाले,

७७, योगभावत्र: -- योगको प्रकट करनेवाले ॥ ११॥

७८. अमृतात्मा शिवः -- भमृतस्वरूप शिव,

७९. चित्यः -- सनातन, ८०. वरेण्यः -- वरणोय ~~ आश्रव

लेनेयोप्प, ८१. वरदः -- उपास्कको सनोवाड्छित वर

देनेवाले, ८२. प्रभुः- सव कुछ करनतेमें समर्थ,

८३. धनर: -- धनदान करनेवाले, ८४. प्राणदः -

प्रागद्यान, ८५. श्रेष्ठ: -- सबसे उत्कृष्ट, ८६. कापदः-

मनोबाण्छित वस्तु देनेवाले, ८७, कामरूपधृक्‌ --

इच्छानुसार रूप धारण करनेवाले॥ १२॥

८८. लरणिः ~ संसारसागरसे तारनेजाले,

८९. शाश्वतः -- सनातन पुरुष, ९०. शास्ता--शासक

या उपदेशक. ९१. शास्त्रज्ञः -- समस्त शालोके ज्ञाता,

तपनः ~ त्ने या ताप देनेवाले, ९२. शवः --खयके

अधिठान या आश्रय, ९३. वेदगर्भ:--घशुक्लयजुर्थेदको

प्रकट करतेबाले, ९४. विभु:--सर्वत्र व्यापक,

९५. बीर:--शूरवोर, ९६. शान्तः--शमयुक्त,

९७, सावित्रिवद्वभः -- गायत्रोमन्त्रके अधिदेवता॥ १३४

९८. ध्येय: -- ध्यान करतेयोग्य, ९९. विश्वेक्षा:--

अम्पूर्ण जगत्‌के ईश्वर, १००. भर्ता--सबका भरण-

पोषण करनेवाले, १०१. लोकनाथः ~ संसारके रक्षक,

१०२. महेश्वर: -- परमेश्वर, १०३. महेंद्र: -- देवराज द्र

स्वरूप, १०४. बरुण:--पश्चिम दिशके अधिपति ' वरन

जापक आदित्य, १०७, धाता-- जगत्‌का धारण -पौपण

कसेबाले अथवा ' धाता' नामक आदित्य, १०६. विष्णुः-

व्याक अयवा ' विष्णु" नामक आदित्य, १०७, अप्नि:--

अद्रिस्वरूप, १०८, दिखाकर:--रात्रिका अंधकार दूर

करके प्रकाशपूर्ण दिवको प्रकट करनेयाले ॥ १४॥

उन महात्पा चिर्यकर्मानि उपर्युक्त नामोड्रारा भगवान्‌

सूर्वक्षा स्ववत किया। इससे भगवान्‌ सूर्यको बड़ी प्रसन्नता

हुई और वे उन विश्वकर्मासे बोले॥ १५॥

प्रजापते आपकी युद्धिमें जो बात है--आप जिस

उद्देश्यफों खेकर भये हैं, वह घुझे ज्ञात है। अत: आप

मुझे शाणचक्रपर चद़ाकर मेरे मण्डलको छै दें: इससे

तवदद्धिश्थं मया ज्ञातमेवमौष्णयं शमं व्रजेत्‌॥। १६ | भे उष्णता कुछ क्रम हो जायगो॥ १६॥

१ ज कि नीले कटा ~ रयं जियन्त कोणं प्रौलकाकहन प्‌ । विषस्वार्‌ धवड़े प्रद - ~"

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