गान्धवं लक्षण वणन |] { ६६
अलंकारास्तु चत्वारस्थापनी क्रमरेजन: ।
प्रमादस्याप्रमादश्च तेषां वक्ष्यामि लक्षणम् £
विस्वरोऽष्टकलाश्चैव स्थानं द्वयं कतरागत: ।
आवत्तं स्याक्रमोत्वाक्षी वेकार्या परिमाणतः ॥१०
कुमायं संपरं विद्धि द्विस्तरं वामनं गतः ।
एष वे एष चेवस्यकुतरेकः कुलाधिकः ।। ११
स्वेन स्वे कातरे जातकलामरिनितरेषितः ।
तस्मिश्चैव स्वरे वृद्धिनिष्टप्ते तद्धिचक्षणः ।। १२
स्येनस्तु अपरो हस्त उत्तरः कमला कलः ।
प्रमाणघसबिदुर्ना जायते विदुरे पुनः ॥ १३
कला कार्या तु वर्णानां तदा नुः स्थापितो भवेन् ।
विपर्येयस्य रोपिस्याद्यस्य प्रादुर्घटी मम १४
वर्णों के ज्ञाता विद्वदुगण आरोहण वर्णो को आरोहण से ज्ञात किया
ज्ञात किया करते हैं। इन्हीं वर्णो के अलंकारो को समन्न लीजिए ।०। अलं-
कार चार हैं--धापनो-क्रम-रोजन ओर प्रमाद का अप्रमाद-इनका लक्षण
बताऊगा ।€। विस्वर और अष्ट कला स्थान दो--एकतर में आगत-आवर्त्त
का अक्रम आक्षी और परिमाण से वेकार्य ह ।१०। कुमार को संमर समझ्िए
और द्विस्तर बामन को गत है । यह ही एक का है फिर एक कुलाधिक कंसे
होता है ।११। अपने से अपने कातर में जात कलाको अग्नितरेषित कहा है ।
उसका विद्वान उसमें ही निष्टप्त स्वर में वृद्धि समझ लेवे ।१२।स्येनतो
दूसरा हाथ है और उत्तर कमलाकल होता है । फिर विदुर में प्रमाण घस
बिन्दु नहीं होता है।१३। तभी वर्णो की कला करनी चाहिए जन नुः स्थापित
होवे । विपयंय का रोपी होती है जिसको मेरी घटी कहा करते हैं ।१४।
एकोत्तरः स्वरस्तु स्यात्षडजत्तः परम: स्वरः ।
अक्ेपस्कंदनाकार्यं काकस्योपचपृष्कलम् ॥ १५
संतारौ तौनुसर्वाप्यौ कार्यं वा कारणं तथा।
आक्षिप्तमवरोह्यासीतप्रोक्ष मयन्तथेव च ।। १६