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* पुराणे परमं पुण्यं भविष्यं सर्वसौ ख्यदम् «
[ संक्षिप्त भविष्यपुराणाडु
चौगुना, पित्तमें आठ गुना, कफमें सोलह गुना, वातमें तीस
गुना, मज्जामें साठ गुना और प्राणोमें पहुँचकर वही विष अनन्त
गुना हो जाता है। इस प्रकार सारे शरीरमें विषके व्या हो जाने
तथा श्रवणदाक्ति बंद हो जानेपर वह जीव श्वास नहीं ले पाता
और उसका प्राणान्त हो जाता है। यह शरीर पृथ्वी आदि
पञ्चभूतोसे बना है, मृत्युके बाद भूत-पदार्थ अलग-अलग हो
जाते हैं और अपने-अपनेमें लोन हो जाते हैं। अतः विषको
चिकित्सा बहुत शीघ्र करनी चाहिये, विलम्ब होनेसे रोग
असाध्य हो जाता है। सर्पादि जीओऑँका विष जिस प्रकार
प्राण हरण करनेवाला होता है, वैसे ही दौखिया आदि विष भी
प्राणको हरण करनेवाले होते हैं।
विषके पहले वेमे रोमाञ्च तथा दूसरे वेगमें पसोना
आता है। तीसरे बेगमें शरीर काँपता है तथा चौथेमें
श्रवणदाक्ति अवरुद्ध होने छती है, पाँचवेंमें हिचकी उने
त्गती है और छठेमें ग्रीवा लटक जाती है तथा सातवें वेगे
प्राण निकल जाते हैँ । इन सात वेगोमें ारीरके साते धातु ओमि
विष व्याप्त हो जाता है। इन धातुओमे परहैचे हुए विषका
अलग-अलग लक्षण तथा उपचार इस प्रकार दै--
आँखोंके आगे अँधेश छ जाय और शारीरम बार-बार
जतन होने खगे तो यह जानना चाहिये कि विष त्वचामें है ।
इस अवस्थामें आककी जड़, अपापार्ग, तगर और प्रियंगु--
इनक्ये जलमें घोटकर पिलानेसे विकी बाधा दान्त हो सकती
है । त्वचासे रक्तमें विष पहुँचनेपर ऋरीरमें दाह और मूच्छ होने
लगती है। शीतल पदार्थ अच्छा लगता है। उश्यौर (खस),
चन्दन, कूट, तगर, नीलोत्पल, सिंदुवास्को जड़, धतृरेकी जड़,
हींग और मिरच-- इनको पीसकर देना चाहिये। इससे बाधा
इन्त न हो तो भटकटैया, इन्रायणकी जड़ और सर्पगंधाकों
घीमें पोसकर देना चाहिये। यदि इससे भी शान्त न हो तो
सिंदुबार और हींगका नस्य देना चाहिये और पित्माना चाहिये।
इसीका अञ्जन और लेप भी करना चाहिये, इससे रक्तमें प्राप्त
विषकी वाधा शान्त हो जाती है।
रक्तसे पित्तम विष पैहुच जानेपर पुरुष उठ-उठकर गिरने
लगता है, शरीर पीला हो जाता है, सभी दिशाएँ पीले वर्णकी
दिखायी देती हैं, द्रीरमें दाह और प्रबल मूर्च्छा होने लगतो
है। इस अवस्थामें पीपल, शहद, महुवा, घौ, तुम्बेकी जड़,
इन्द्रायणक् जड़--इन सबको गोमूत्रमें पीसकर नस्य, लेपन
तथा अञ्जन करनेसे विषका वेग हट जाता है।
पित्तसे विषके कफम प्रवेश कर जानेपर शरीर जकड़
जाता है। श्वास भलीभाँति नहो आती, कण्एमें घर्घर दाब्द होने
लगता है और मुखसे तर गिरने लगती है। यह लक्षण
देखकर पौपल, मिरच, सट, इलेष्मातक ( वहुवार युक्ष),
लोध एवं मधुसास्को समान भाग करके गोमृत्रमें पोसकर
लेपन और अञ्जन लगाना चाहिये और उसे पिलाना भी
चाहिये। ऐसा करनेसे विषका येग दान्त हो जाता है।
कफम वातमे विष प्रवेश करनेपर पेट फूल जाता है,
कोई भी पदार्थ दिखायी नहीं पड़ता, दृष्टि-भंग हो जाता है।
ऐसा लक्षण होनेपर शोणा (सोनागाछ)की जड़, प्रियाल,
गजपीपल, भारंगी, बचा, पीपल, देवदारु, महुआ, मधुसार,
सिंदुवार और हींग--इन सबको पीसकर गोल बना ले और
ग्रेगीको खिलाये और अञ्जन तथा लेपन करे । यह ओषधि
सभी विषोंका हरण करती है ।
वातमे मजामे विष पहुँच जानेपर दृष्टि नष्ट हो जाती है,
सभी अङ्गं बेसुध हो शिथिल हो जाते हैं, ऐसा लक्षण होनेपर
घी, दाहद, झर्कगयुक्त खस और चन्दनकों घोंटकर पिलाना
चाहिये और नस्य आदि भौ देना चाहिये। ऐसा करनेसे विषका
वेग हट जाता है।
मज्जासे मर्मस्थानोंमें विष पहुँच जानेपर सभी इन्द्रियाँ
निश्चेष्ट हो जातौ हैं और वह जमीनपर गिर जाता है । काटनेसे
रक्त नहीं निकलता, केशके उखाड़नेपर भी कष्ट नहीं होता, उसे
मृत्युके ही अधीन समझना चाहिये। ऐसे लक्षणोंसे युक्त
रोगीकी साधारण वैद्य चिकित्सा नहीं कर सकते । जिनके पास
सिद्ध प्र ओर ओषधि होगी वे ही ऐसे गेगियोंके रोगको
हटानेमें समर्थ होते हैं । इसके लिये साक्षात् रुद्रने एक ओषधि
कही है। मोरका पित्त तथा मार्जास्का पित्त और गन्धनाडीकी
जड़, कुँकुम, तगर, कूट, कासमर्दकी छाल तथा उत्पल, कुमुद
और कमल--इन तीनोंके केसर--सभीका समान भाग
लेकर उसे गोमूत्रमें पीसकर नस्य दे, अज्जञन लगाये। ऐसा
करनेसे कालसर्पसे डैसा हुआ भी व्यक्ति दीश्र विषरहित हो
जाता है। यह मृतसंजोवनी ओषधि है अर्धात् मरको भो जित्प
देती है। (अध्याय ३५)
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